सूरदास के पद (‘सूरसागर’ के भ्रमर गीत) कविता का सार तथा मूल पाठ, सप्रसंग व्याख्या | Class-X, Chapter-1 (CBSE/NCERT)

सूरदास के पद (‘सूरसागर’ के भ्रमर गीत) कविता का सार तथा मूल पाठ, सप्रसंग व्याख्या और कवि परिचय| Class-X, Chapter-1 (CBSE/NCERT)

सूरदास का जीवन परिचय

बालकृष्ण की लीलाओं का मनोरम वर्णन करने वाले हिन्दी साहित्याकाश के सूर्य महाकवि सूरदास के बारे में यह उक्ति प्रसिद्ध है- ‘सूर-सूर तुलसी ससि उडुगन केशवदास ।’ महाकवि सूरदास का जन्म सन् 1478 में माना जाता है। विद्वानों में इनके जन्मस्थल के बारे में भी मतभेद हैं।


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एक मान्यता के अनुसार इनका जन्म आगरा-मथुरा मार्ग पर रुनकता (रेणुका) क्षेत्र में हुआ था। कुछ विद्वान इनका जन्म स्थान दिल्ली के पास सीही में मानते थे। इनका देहावसान सन् 1583 में पारसौली में हुआ था। महाप्रभु बल्लभाचार्य के अष्टछाप कवियों में सूरदास सर्वाधिक ख्यातिप्राप्त कवि थे। ये मथुरा में गऊघाट पर रहकर श्रीनाथ के मंदिर में भजन-कीर्तन करते थे।

रचनाएँ 

माना जाता है कि सूरदास ने सवा लाख पदों की रचना की थी जिनमें सात हजार पद ही प्राप्त हुए हैं। सूरसागर, साहित्य लहरी तथा सूर सारावली आपकी प्रमुख रचनाएँ हैं, जिनमें सूरसागर सर्वाधिक प्रसिद्ध है।

भाषा-शैली – मूलतः सूर वात्सल्य, श्रृंगार व भक्ति के श्रेष्ठ कवि माने गए हैं। इनकी कविता में ब्रजभाषा का परिष्कृत रूप दिखाई देता है। आपके पदों में रस-अलंकारों की प्रचुरता व भाषा की सहजता द्रष्टव्य है। मानव-मन की सहज वृत्तियों का जैसा निरूपण सूर की कविताओं में मिलता है, वैसा कहीं अन्यत्र नहीं दिखाई देता ।

भ्रमर गीत

कविता का सार तथा मूल पाठ, सप्रसंग व्याख्या, सहित

सूरदास के पद ‘सूरसागर’ के भ्रमर गीत

इस पाठ में ‘सूरसागर’ के भ्रमर गीत से चार पद लिए गए हैं। इन पदों में श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने के बाद गोपियों की विरह-व्यथा व्यक्त हुई है। ‘भ्रमर’ का नाम लेकर गोपियों ने श्रीकृष्ण के सखा और संदेशवाहक उद्धव पर पैने व्यंग्यबाण छोड़े हैं। प्रथम पद में गोपियों ने कहा है कि यदि उद्धव ने कभी किसी से प्रेम किया होता तो वह गोपियों के विरह के कष्ट को अवश्य समझ पाते ।


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दूसरे पद में गोपियों का कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम उनके इन शब्दों में व्यक्त हुआ है कि उनकी मन की इच्छाएँ तो उनके मन में ही रह गई। तीसरे पद में गोपियों ने उद्धव की योग साधना को कड़वी ककड़ी बताकर अस्वीकृत कर दिया है। चौथे पद में गोपियों ने कृष्ण पर कटाक्ष करते हुए कहा है कि अब वह सच्चे प्रेमी नहीं, कुटिल राजनीतिज्ञ बन गए हैं।

(1)  ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी ।

ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी ।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी ।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी ।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी ।
प्रीति-नदी में पाउँ न बोर्यो, दृष्टि न रूप परागी ।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी ।

सन्दर्भ तथा प्रसंग 

प्रस्तुत पद सूरदास की रचना ‘सूरसागर’ महाकाव्य के ‘भ्रमर गीत’ प्रसंग से लिया है। पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग-2 में संकलित इस पद में गोपियों द्वारा उद्धव पर व्यंग्य किया गया है।

ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी पद की व्याख्या

गोपियाँ उद्धव पर व्यंग्य करती हुई कहती हैं- “हे उद्धव ! आप सचमुच बड़े भाग्यशाली हैं क्योंकि आप प्रेम की डोर से मुक्त रहे हो । कभी प्रेम-बंधन में नहीं पड़े। आपके मन में प्रेम का अनुभव ही नहीं आया।

जैसे कमलिनी के पत्ते जल के भीतर रहते हुए भी उससे नहीं भीगते उसी प्रकार आप भी संसार में रहते हुए प्रेम के तरल स्पर्श से वंचित रहे हैं। जैसे तेल से लिपी हुई गगरी जल के बीच रहते हुए भी उसकी एक बूँद भी अपने ऊपर नहीं ठहरने देती, उसी प्रकार प्रेम-जगत् में रहते हुए भी आप उसका बूँद भर भी आस्वाद नहीं पा सके। प्रेम रूपी नदी में स्नान करना तो दूर आपने तो उसमें कभी पैर तक नहीं डुबोया ।

आपकी दृष्टि कभी किसी के रूप पर मुग्ध नहीं हुई। ये तो हम ही भोली-भाली नारियाँ हैं जो श्रीकृष्ण के प्रेम-जाल में उसी प्रकार फँसी पड़ी हैं जैसे मिठास की लोभी चींटियाँ गुड़ से चिपकी रह जाती हैं।” गोपियों ने वस्तुत: उद्धव को व्यंग्य की आड़ में अभागा सिद्ध किया है जो प्रेम रूपी अमृत के स्वाद से वंचित है ।


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पद की विशेष

1. इस पद में ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है। 2. वियोग श्रृंगार रस की व्यंजना इस पद में हुई है। 3. गोपियों के कथन में व्यंग्यभाव की प्रधानता है।

(2)  मन की मन ही माँझ रही ।

मन की मन ही माँझ रही ।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही ।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही ।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही ।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बहीं ।
‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यों, मरजादा न लही

सन्दर्भ तथा प्रसंग

प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग-2 में संकलित पाठ ‘सूरदास’ से अवतरित है। भ्रमरगीत प्रसंग से उद्धृत इस पद में गोपियाँ उद्धव को उलाहना दे रही हैं।

मन की मन ही माँझ रही पद की व्याख्या

कृष्ण की उपेक्षा से व्यथित गोपियाँ उनके मित्र उद्धव को उलाहना देती हुई कह रही हैं- “हे उद्धव ! हमारे सारे प्रेम-मनोरथ मन के मन में ही रह गए क्योंकि न हमें कृष्ण से प्रेम करने का आनंद मिला न हम अपनी विरह-व्यथा ही व्यक्त कर पाईं।

आप ही बताइए कि हम अपनी वियोग की पीड़ा किसे जाकर सुनाएँ ? जिसे सुनाना चाहती थीं वह तो मथुरा में जा बसा है और किसी अन्य के सामने अपनी मनोव्यथा निस्संकोच होकर कैसे प्रकट करें ?

अब तक हमें विश्वास थ कि कृष्ण अपनी अवधि पर लौट आएँगे और इसी आशा पर हमने तन और मन को व्यथित करने वाले वियोग के दिन काटे हैं। परंतु अब आप के इस योग-संदेश को सुन-सुनकर हम विरहिणियों की विरह-अग्नि और भी धधक उठी है ।

जिससे अपनी रक्षा की पुकार करतीं, उसने तो यह योग की प्रबल धारा हमारी ओर बहा दी। अब हम कैसे धैर्य धारण करें, कृष्ण ने तो प्रेम की सारी मर्यादाएँ ही तोड़ दीं। लौटने का वचन तो भंग किया ही, प्रेम संदेश के स्थान पर यह योग-संदेश भिजवा दिया । अब उनसे क्या आशा करें ?”


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पद की विशेष 

1. इस पद में ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है। 2. पुनरुक्ति तथा अनुप्रास अलंकार प्रयुक्त हुए हैं। 3. माधुर्य गुण की प्रधानता है।

(3) हमारें हरि हारिल की लकरी ।

हमारें हरि हारिल की लकरी ।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी ।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जकरी ।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यों करुई ककरी ।
सु तौ ब्याधि हमकों लै आए, देखी सुनी न करी ।
यह ती ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपी, जिनके मन चकरी ।।

सन्दर्भ तथा प्रसंग

प्रस्तुत पद महाकवि सूरदास द्वारा रचित, पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग-2 में संकलित, भ्रमर गीत प्रसंग से अवतरित है। इस पद में गोपियों की कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम भावना का मर्मस्पर्शी वर्णन है।

हमारें हरि हारिल की लकरी पद की व्याख्या 

गोपियाँ कहती हैं- “उद्धव ! आप अपने ज्ञान-उपदेशों के द्वारा हमारे मन को श्रीकृष्ण से विमुख करने की व्यर्थ चेष्टा मत कीजिए, क्योंकि श्रीकृष्ण तो हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान हैं।

जैसे हारिल अपने पंजों में लकड़ी को हर समय पकड़े रहता है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण भी हमारे मन से पलभर को अलग नहीं रहते । हमने मन, वचन और कर्म से नन्द के पुत्र को अपने हृदय में दृढ़तापूर्वक बसा रखा है।

जागते, सोते, सपनों में, दिन और रात में, हमारे मुख से कृष्ण-कृष्ण की ही रट निकलती रहती है। जैसे कड़वी ककड़ी को चखते ही सारा मुँह असहनीय कड़वाहट से भर जाता है उसी प्रकार आपके ये ज्ञानोपदेश हमारे कानों में पड़ते ही हमारे हृदय को कड़वा कर देते हैं।

हे उद्धव ! आप हमारे लिए ये कैसा रोग ले आए हैं जिसे हमने न कभी देखा, न सुना और न अनुभव किया है। अपनी इस ज्ञान और योग की सौगात को आप उनको जाकर सौंपीए जिनके मन चलायमान रहते हैं ।”

पद की विशेष 

1. हारिल पक्षी का उदाहरण देकर कवि ने गोपियों का कृष्ण के प्रति परम अनुराग को बताया है। 2. सरस, साहित्यिक ब्रज भाषा का प्रयोग हुआ है। 3. योग संदेश को गोपियों ने कड़वी ककड़ी के समान बताया है।

(4)  हरि हैं राजनीति पढ़ि आए ।

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए ।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए ।
इक अति चतुर हुते पहिलें ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए ।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए ।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए ।
अब अपनौ मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए ।
ते क्यों अनीति करें आपुन, जे और अनीति छुड़ाए ।
राज धरम तौ यहे ‘सूर’, जो प्रजा न जाहि सताए ।।

सन्दर्भ तथा प्रसंग

प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग-2 में संकलित, महाकवि सूरदास की रचना ‘सूरसागर’ के भ्रमर गीत प्रसंग से अवतरित है। यहाँ गोपियाँ श्रीकृष्ण के प्रति अपने विरह जनित रोष को प्रकट कर रही हैं।

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए पद की व्याख्या

गोपियाँ कहती है- “हे उद्धव । हमें लगता है कि श्रीकृष्ण ने अब राजनीति पढ़ ली है। उनके व्यवहार में राजनीतिज्ञों जैसा छल-कपट झलक रहा है। तुम्हारी बातें सुनकर हम सब सचाई जान गई हैं। श्रीकृष्ण का सारा समाचार, उनकी वास्तविकता हमें पता चल गई है ।

एक तो  श्रीकृष्ण पहले ही बहुत चतुर थे और अब तो गुरु से उन्होंने राजनीतिशास्त्र भी पढ़ लिया है। वह कितने बुद्धिमान हो गए है यह तो इसी से सिद्ध हो रहा है कि हम प्रेम हो रहा है। की उपासिकाओं के लिए उन्होंने योग का संदेश भिजवाया है। आपकी ये कपट भरी योग की बातें हमें श्रीकृष्ण से विमुख नहीं कर पाएँगी।

उद्धव जी! पुराने समय के भले आदमी तो दूसरों की भलाई के लिए भागे फिरा करते थे और आप हमारा अहित करने को मथुरा से यहाँ दौड़े आए हैं। चलो आप हमारे साथ इतनी ही भलाई कर दो कि श्रीकृष्ण जाते समय जो हमारा मन चुराकर ले गए थे, वह हमें वापस करा दो । राजनीति का अर्थ तो राजा द्वारा पालनीय कर्म और कर्त्तव्य होते हैं। ये श्रीकृष्ण कैसे राजा है ?

जिन्होंने सदा दूसरों की अनीति और अन्याय से रक्षा की वही अब हमारे साथ अन्याय करने पर उतारू है। एक आदर्श राजा का धर्म तो यही होता है कि उसकी प्रजा सताई न जाए। परन्तु श्रीकृष्ण ने राज धर्म से विमुख होकर आपको हमें सताने को भेज दिया है।
जाइए और अपने मित्र को समझाइए कि वह अनीति को त्यागकर हमें इस विरह-व्यथा से मुक्त करें ।

विशेष 

1. कवि ने गोपियों के माध्यम से राजधर्म पर प्रकाश डाला है। 2. सरल साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग दृष्ट्व्य है। 3. व्यंग्य और कटाक्ष का मनोहारी प्रयोग है।

महाकवि सूरदास का जन्म कहा हुआ?

सूरदास का जन्म सन् 1478 में माना जाता है।

 

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