अशोक वाजपेयी की प्रसिद्ध कविताएं | Ashok Vajapeyi Ki Prasiddh Kavitay
अशोक वाजपेयी समकालीन हिंदी साहित्य के एक प्रमुख साहित्यकार हैं। इस post में हम अशोक वाजपेयी के कुछ प्रसिद्ध कविताएं पढ़ेंगे।
अशोक वाजपेयी का जीवन परिचय
अशोक वाजपेयी समकालीन हिंदी साहित्य के एक प्रमुख साहित्यकार हैं। वाजपेयी जी का जन्म 16 जनवरी 1941 को दुर्ग (छत्तीसगढ़) में हुआ। ‘कहीं नहीं वहीं’ काव्य संग्रह के लिए सन् 1994 में अशोक वाजपेयी जी को भारत सरकार द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया।
अशोक वाजपेयी के काव्य संग्रह
अशोक वाजपेयी के अब तक (जनवरी 2020 तक) प्रकाशित काव्य संग्रह हैं:-
शहर अब भी संभावना है, एक पतंग अनंत में, अगर इतने से, तत्पुरुष, कहीं नहीं वहीं, बहुरि अकेला, थोड़ी-सी जगह, घास में दुबका आकाश, आविन्यो, जो नहीं है, अभी कुछ और, समय के पास समय, कहीं कोई दरवाजा, दुःख चिट्ठीरसा है, पुनर्वसु, विवक्षा, कुछ रफू कुछ थिगड़े, इस नक्षत्रहीन समय में, कम से कम, हार-जीत।
अशोक वाजपेयी की प्रसिद्ध कविताएं
तुम जहाँ कहो / अशोक वाजपेयी
तुम जहाँ कहो
वहाँ चले जायेंगे
दूसरे मकान में
अँधेरे भविष्य में
न कहीं पहुँचने वाली ट्रेन में
अपना बसता-बोरिया उठाकर
रद्दी के बोझ सा
जीवन को पीठ पर लादकर
जहाँ कहो वहाँ चले जायेंगे
वापस इस शहर
इस चौगान, इस आँगन में नहीं आयेंगे
वहीं पक्षी बनेंगे, वृक्ष बनेंगे
फूल या शब्द बन जायेंगे
जहाँ तुम कभी खुद नहीं आना चाहोगे
वहाँ तुम कहो तो
चले जायेंगे
हम वहाँ / अशोक वाजपेयी
हम वहाँ भी जायेंगे
जहाँ हम कभी नहीं जायेंगे
अपनी आखिरी उड़ान भरने से पहले,
नीम की डाली पर बैठी चिड़िया के पास,
आकाशगंगा में आवारागर्दी करते किसी नक्षत्र के साथ,
अज्ञात बोली में उचारे गये मंत्र की छाया में
हम जायेंगे
स्वयं नहीं
तो इन्हीं शब्दों से-
हमें दुखी करेगा किसी प्राचीन विलाप का भटक रहा अंश,
हम आराधना करेंगे
मंदिर से निकाले गये
किसी अज्ञातकुलशील देवता की-
हम थककर बैठ जायेंगे
दूसरों के लिए की गयी
शुभकामनाओं और मनौतियों की छाँह में-
हम बिखर जायेंगे
पंखों की तरह
पंखुरियों की तरह
पंत्तियों और शब्दों की तरह-
हम वहाँ भी जायेंगे
जहाँ हम कभी नहीं जायेंगे।
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एक बार जो/ अशोक वाजपेयी
एक बार जो ढल जाएंगे
शायद ही फिर खिल पाएंगे।
फूल शब्द या प्रेम
पंख स्वप्न या याद
जीवन से जब छूट गए तो
फिर न वापस आएंगे।
अभी बचाने या सहेजने का अवसर है
अभी बैठकर साथ
गीत गाने का क्षण है।
अभी मृत्यु से दांव लगाकर
समय जीत जाने का क्षण है।
कुम्हलाने के बाद
झुलसकर ढह जाने के बाद
फिर बैठ पछताएंगे।
एक बार जो ढल जाएंगे
शायद ही फिर खिल पाएंगे।
फिर घर / अशोक वाजपेयी
माँ को कैसे पता चलेगा
इतने बरसों बाद
हम फिर उसके घर आए हैं?
कुछ पल उसको अचरज होगा
चेहरे पर की धूल-कलुष से विभ्रम भी –
फिर पहचानेगी
हर्ष-विषाद में डूबेगी-उतराएगी।
नहीं होगा उसका घर
विष्णुपदी के पास
याकि हरिचंदन और पारिजात की देवच्छाया में
वहाँ भी ले रखी होगी उसने
किराए से रहने की जगह
वैसे ही भरे-पूरे मुहल्ले और
उसके शोर-गुल में।
फिर पिता आएंगे शाम को घूमकर
और हमेशा की तरह बिना कुछ बोले
हमें देखेंगे और मेज पर लगा रात का खाना खाएंगे
और खखूरेंगे अलमारी में कोई मीठी चीज़।
हम थककर सो जाएंगे
अगले दिन जागेंगे तो ऐसे
हम एक घर छोड़कर
दूसरे घर जाएंगे
ऐसे जैसे कि वही घर हो।
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सड़क पर एक आदमी / अशोक वाजपेयी
वह जा रहा है
सड़क पर
एक आदमी
अपनी जेब से निकालकर बीड़ी सुलगाता हुआ
धूप में–
इतिहास के अंधेरे
चिड़ियों के शोर
पेड़ों में बिखरे हरेपन से बेख़बर
वह आदमी …
बिजली के तारों पर बैठे पक्षी
उसे देखते हैं या नहीं – कहना मुश्किल है
हालांकि हवा उसकी बीड़ी के धुएं को
उड़ाकर ले जा रही है जहां भी वह ले जा सकती है ….
वह आदमी
सड़क पर जा रहा है
अपनी ज़िंदगी का दुख–सुख लिए
और ऐसे जैसे कि उसके ऐसे जाने पर
किसी को फ़र्क नहीं पड़ता
और कोई नहीं देखता उसे
न देवता¸ न आकाश और न ही
संसार की चिंता करने वाले लोग
वह आदमी जा रहा है
जैसे शब्दकोष से
एक शब्द जा रहा है
लोप की ओर ….
और यह कविता न ही उसका जाना रोक सकती है
और न ही उसका इस तरह नामहीन
ओझल होना ……
कल जब शब्द नहीं होगा
और न ही यह आदमी
तब थोड़ी–सी जगह होगी
खाली–सी
पर अनदेखी
और एक और आदमी
उसे रौंदता हुआ चला जाएगा।
कोई नहीं सुनता / अशोक वाजपेयी
कोई नहीं सुनता पुकार–
सुनती है कान खड़े कर
सीढियों पर चौकन्नी खड़ी बिल्ली,
जिसे ठीक से पता नहीं कि
डर कर भाग जाना चाहिए या
ठिठककर एकटक उस ओर देखना चाहिए।
कोई नहीं सुनता चीख़–
सुनती है खिड़की के बाहर
हरियाये पेड़ पर अचानक आ गई नीली चिड़िया,
जिसे पता नहीं कि यह चीख़ है
या कि आवाज़ों के तुमुल में से एक और आवाज़।
कोई नहीं सुनता प्रार्थना–
सुनती है अपने पालने में लेटी दुधमुंही बच्ची,
जो आदिम अंधेरे से निकलकर उजाले में आने पर
इतनी भौंचक है
कि उसके लिए अभी आवाज़
होने, न होने के बीच का सुनसान है।
गाढ़े अंधेरे में / अशोक वाजपेयी
इस गाढ़े अंधेरे में
यों तो हाथ को हाथ नहीं सूझता
लेकिन साफ़-साफ़ नज़र आता है :
हत्यारों का बढता हुआ हुजूम,
उनकी ख़ूंख़्वार आंखें,
उसके तेज़ धारदार हथियार,
उनकी भड़कीली पोशाकें
मारने-नष्ट करने का उनका चमकीला उत्साह,
उनके सधे-सोचे-समझे क़दम।
हमारे पास अंधेरे को भेदने की कोई हिकमत नहीं है
और न हमारी आंखों को अंधेरे में देखने का कोई वरदान मिला है।
फिर भी हमको यह सब साफ़ नज़र आ रहा है।
यह अजब अंधेरा है
जिसमें सब कुछ साफ़ दिखाई दे रहा है
जैसे नीमरोशनी में कोई नाटक के दृश्य।
हमारे पास न तो आत्मा का प्रकाश है
और न ही अंतःकरण का कोई आलोक :
यह हमारा विचित्र समय है
जो बिना किसी रोशनी की उम्मीद के
हमें गाढे अंधेरे में गुम भी कर रहा है
और साथ ही उसमें जो हो रहा है
वह दिखा रहा है :
क्या कभी-कभार कोई अंधेरा समय रोशनी भी होता है?