तुलसीदास (राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद ) कविता का सार तथा मूल पाठ, सप्रसंग व्याख्या | Class-X, Chapter-2 (CBSE/NCERT)

तुलसीदास (राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद ) कविता का सार तथा मूल पाठ, सप्रसंग व्याख्या और कवि परिचय| | Class-X, Chapter-1 (CBSE/NCERT)

तुलसीदास का जीवन परिचय

गोस्वामी तुलसीदास का जन्म सन् 1532 में बाँदा (उ.प्र.) जिले के राजापुर गाँव में हुआ था। कुछ विद्वान इनका जन्म स्थान- एटा (उ.प्र.) जिले के सोरों नामक स्थान को भी मानते हैं। इनकी माता का नाम हुलसी तथा पिता का नाम आत्माराम दुबे था । बाल्यकाल में ही माता-पिता का निधन होते ही ये अनाथ हो गए। इनका बचपन घोर कष्टों में बीता। गुरु नरहरिदास ने इनको रामभक्ति में प्रेरित किया। गुरु के संपर्क में आकर तुलसी को एक नया मार्ग मिला। इनका विवाह दीनबन्धु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ। संसार को रामचरितमानस जैसा अमूल्य साहित्य रत्न प्रदान करने वाले इस महाकवि का देहावसान सन् 1623 में काशी में हो गया था।

तुलसीदास की प्रमुख-रचनाएँ

रामचरितमानस, कवितावली, गीतावली, दोहावली, कृष्ण गीतावली तथा विनयपत्रिका आदि। रामचरितमानस कवि की अनन्य रामभक्ति तथा सृजनात्मक कौशल का अनुपम उदाहरण है। इसके माध्यम से तुलसी ने नीति, स्नेह, शील, विनय, त्याग जैसे उच्च आदर्शों को प्रतिष्ठित किया है।


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तुलसीदास की रचना-शैली

गोस्वामी तुलसीदास का अवधी और ब्रजभाषा दोनों पर समान अधिकार था। दोनों ही भाषाओं में आपकी रचना मिलती है। इनकी रचनाओं में प्रबन्ध और मुक्तक दोनों ही काव्य-शैलियों का उत्कृष्ट रूप दिखाई देता है। चौपाई, कवित्त, सवैया, दोहे, सोरठे, हरिगीतिका आदि छंदों का प्रयोग किया है। रस, अलंकारों का सहज प्रयोग आपकी रचनाओं में प्रचुरता से हुआ है।

तुलसीदास राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद कविता का सार

प्रस्तुत प्रसंग तुलसीकृत महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के बालकाण्ड से लिया गया है। सीता स्वयंवर में राम ने शिव धनुष को तोड़ दिया । यह देखकर परशुराम अत्यन्त क्रोधित हुए। उन्होंने जानना चाहा कि धनुष किसने तोड़ा ? राम के विनम्र वचन-कि धनुष आपके किसी दास ने ही तोड़ा होगा, परशुराम को शान्त नहीं कर सके। लक्ष्मण के व्यंग्यपूर्ण वचन परशुराम को और अधिक क्रोधित करते रहे। अंत में राम की विनय और विश्वामित्र के समझाने पर राम की शक्ति की परीक्षा लेकर वह शान्त हुए ।

(1)  नाथ संभुधनु भंजनिहारा । होइहि केउ एक दास तुम्हारा ।।

नाथ संभुधनु भंजनिहारा । होइहि केउ एक दास तुम्हारा ।।
आयेसु काह कहिअ किन मोही । सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ।।
सेवकु सो जो करै सेवकाई । अरिकरनी करि करिअ लराई ।।
सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा । सहसबाहु सम सो रिपु मोरा ।।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा । न त मारे जैहहिं सब राजा ।।
सुनि मुनिवचन लखन मुसुकाने । बोले परसुधरहिं अवमाने 11
बहु धनुही तोरी लरिकाई। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं ।।
येहि धनु पर ममता केहि हेतू । सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू ।।
रे नृपबालक कालबस, बोलत तोहि न सँभार ।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु, बिदित सकल संसार ।।

संदर्भ एवं प्रसंग

प्रस्तुत काव्यांश कवि तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस के बालकांड से अवतरित है। पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग-2 में संकलित तुलसीदास (राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद ) ‘ से उद्धृत इस काव्यांश में राम परशुराम के क्रोध को शांत करने के लिए विनम्र वाणी में निवेदन कर रहे है।

नाथ संभुधनु भंजनिहारा । होइहि केउ एक दास तुम्हारा ।। पद की व्याख्या

शिवधनुष के तोड़े जाने से कुपित परशुराम को शांत करने के लिए राम ने विनम्रतापूर्वक कहा – हे नाथ ! इस धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई दास ही होगा । आपका क्या आदेश है, मुझे बताइए ? यह सुनकर क्रोधी स्वभाव वाले मुनि परशुराम क्रोध में भरकर बोले – सेवक वह होता है जो सेवा का कार्य करे किंतु धनुष को तोड़ने वाले ने तो शत्रु जैसा आचरण करके लड़ाई का काम किया है ।


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जिसने भी यह शिवधनुष तोड़ा है वह सहस्रबाहु के समान मेरा घोर शत्रु है। वह व्यक्ति इस राजाओं के समाज से अलग होकर सामने आ जाए, नहीं तो सारे राजा मेरे हाथों मारे जाएँगे ।

परशुराम के इन क्रोधयुक्त वचनों को सुनकर लक्ष्मण मुसकराए और उनका निरादर करते हुए कहने लगे – “हमने बचपन में न जाने कितनी धनुषियाँ तोड़ी होंगी पर आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया । इस धनुष पर आपकी विशेष ममता किस कारण है ?

लक्ष्मण के व्यंग्य-वचन सुनकर भृगुवंश की ध्वजा के समान परशुराम ने क्रोधित होकर कहा अरे राजकुमार ! तू काल के वशीभूत है तभी तुझे बोलते समय ध्यान नहीं कि तू क्या कह रहा है ? क्या सारे संसार में प्रसिद्ध यह शिव का धनुष उन धनुषियों के समान हो सकता है ?

पद की विशेष

(1) काव्यांश की भाषा साहित्यिक अवधी है। कवि का भाषा पर पूर्ण अधिकार है।

(2) सम्पूर्ण अंश में व्यंग्यमयी शैली का प्रयोग हुआ है।

(3) छंद चौपाई और दोहा हैं।

(4) शान्त और रौद्र रस की संयुक्त योजना हुई है।

(5) ‘काह कहिअ’, ‘सेवकु सो’, ‘सहसबाहु सम सो’, ‘सुनि मुनि बचन लखन’ आदि में अनुप्रास अलंकार है। ‘जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सौ रिपु मोरा ॥’ में भृगुकुलकेतू’ में उपमा अलंकार है।


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(6) पात्रों के चरित्र पर उनके संवादों से पूर्ण प्रकाश पड़ रहा है।

(2) लखन कहा हसि हमरे जाना । सुनहु देव सब धनुष समाना ।।

लखन कहा हसि हमरे जाना । सुनहु देव सब धनुष समाना ।।
का छति लाभु जून धनु तोरें । देखा राम नयन के भोरें ।।
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू । मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।।
बोले चितै परसु की ओरा । रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा ।।
बालकु बोलि बधौं नहिं तोही । केवल मुनि जड़ जानहिं मोही ।।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही । बिस्वबिदित क्षत्रिय कुल द्रोही ।।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही । बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही ।।
सहसबाहु भुज छेदनिहारा । परसु बिलोकु महीप कुमारा ।।
मातु पितहिं जनि सोचबस, करसि महीसकिसोर ।
गर्भन्ह के अर्भक दलन, परसु मोर अति घोर ।।

सन्दर्भ तथा प्रसंग 

प्रस्तुत पद्यांश कविवर तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरित मानस’ महाकाव्य के तुलसीदास (राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद )से अवतरित, पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग-2 में संकलित है। यहाँ लक्ष्मण परशुराम के क्रोधपूर्ण वचनों का अपने व्यंग्यों के द्वारा उपहास कर रहे है। परशुराम उन्हें बार-बार धमकियाँ दे रहे हैं।

लखन कहा हसि हमरे जाना । सुनहु देव सब धनुष समाना ।। पद की व्याख्या

लक्ष्मण ने हँसते हुए परशुराम से कहा – हे देव ! हमारी समझ से तो सब धनुष एक जैसे ही होते हैं। एक पुराने धनुष को तोड़ने से किसे हानि या लाभ हो सकता है ? राम ने इसे नए के भ्रम में परखा था। यह तो राम के छूते ही टूट गया अत: इसमें राम का कोई दोष नहीं है।

हे मुनिवर ! आप बिना कारण ही इतना क्रोध क्यों कर रहे हैं ? यह सुनते हो परशुराम ने क्रोधित होकर अपने फरसे की ओर देखा और बोले- अरे मूर्ख ! तूने मेरे स्वभाव के बारे में नहीं सुना है। मैं तो तुझे बालक जानकर नहीं मार रहा हूँ। तू मुझे केवल एक साधारण मुनि समझ रहा है। मैं बाल ब्रह्मचारी और अत्यंत क्रोधी हूँ। सारा संसार जानता है कि मैं क्षत्रिय वंश का शत्रु हूँ। मैंने अपनी भुजाओं के बल से धरती को कितनी ही बार राजाओं से रहित किया है और उनके राज्यों की भूमि को अनेक बार ब्राह्मणों को दान किया है।

अरे राजपुत्र ! सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे को ध्यान से देख ले । अरे राजकुमार । अपने माता-पिता को शोक-मग्न मत कर । मेरा यह भयंकर फरसा गर्भ में स्थित बच्चों को भी नष्ट कर देता है। मेरे फरसे से भयभीत क्षत्राणियों के गर्भ गिर जाते हैं।

पद की विशेष

(1) साहित्यिक अवधी भाषा का प्रयोग है। शब्दों का चयन पात्रों और परिस्थिति के अनुरूप है।

(2) व्यंग्य और उपहासपूर्ण शैली व प्रयोग है।

(3) रौद्र रस तथा हास्य रस की सफल योजना है।

(4) ‘हसि हमरे’, ‘काज करिअ कत’, ‘सट सुनेहि सुभात’ तथा ‘बालकु बोलि बधउ’ में अनुप्रास अलंकार है। ‘छुअत टूट’ में अतिशयोक्ति अलंकार है।

(5) संवाद दोनों पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालने वाले हैं।

(3)  बिहसि लखनु बोले मृदु बानी । अहो मुनीसु महाभट मानी ।।

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी । अहो मुनीसु महाभट मानी ।।
पुनि-पुनि मोहि देखाव कुठारू । चहत उड़ावन फूँकि पहारू ।।
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं । जे तरजनी देखि मरि जाहीं ।।
देखि कुठारु सरासन बाना । मैं कछु कहा सहित अभिमाना ।।
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी । जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी ।।
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई । हमरे कुल इन्ह पर न सुराई ।।
बधे पापु अपकीरति हारें । मारतहू पा परिअ तुम्हारें ।।
कोटि कुलिस सम बचन तुम्हारा । व्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा ।।
जो बिलोकि अनुचित कहेउँ, छमहु महामुनि धीर ।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि, बोले गिरा गंभीर ।।

सन्दर्भ तथा प्रसंग 

प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग-2 में संकलित, कविवर तुलसीदास की प्रसिद्ध रचना ‘रामचरित मानस’ के बालकाण्ड के तुलसीदास (राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद ) उद्धृत है। इस अंश में शिव का धनुष तोड़े जाने से रुष्ठ परशुराम का लक्ष्मण से विवाद प्रस्तुत हुआ है। लक्ष्मण हँस-हँसकर परशुराम पर व्यंग कस रहे हैं और परशुराम भड़क-भड़ककर लक्ष्मण को गम्भीर परिणामों की धमकियाँ दे रहे हैं।

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी । अहो मुनीसु महाभट मानी ।। पद की व्याख्या

लक्ष्मण ने हँसते हुए कोमल वाणी में कहा – अहा महामुनि ! आपको तो निश्चय ही महान् योद्धा मानना पड़ेगा अथवा आप तो निश्चय ही माने हुए महान् योद्धा है। आप बार-बार मुझे अपना फरसा दिखाकर डराना चाह रहे हैं। आप तो फ्रैंक से पहाड़ को उड़ा देना चाहते हैं। लेकिन ध्यान रखिए कि हम भी कोई छुईमुई के पौधे नहीं हैं जो आपकी तर्जनी उँगली दिखाने से सिकुड़ (मर) जाएँगे।

हम आपके इस गर्जन-तंर्जन से डरने वाले नहीं हैं। आपको क्षत्रियों की भाँति फरसा, धनुष-बाण आदि अस्त्र-शस्त्र धारण किए देखकर मैंने अभिमानपूर्वक कुछ बातें कह दी, पर अब ज्ञात हुआ कि आप महर्षि भृगु के वंशज हैं । आपका जनेऊ बता रहा है कि आप ब्राह्मण हैं। इसी कारण आपकी सारी उचित-अनुचित बातों को मैं क्रोध को रोककर सुन रहा हूँ। हमारे वंश में देवता, ब्राह्मण, भक्तजन और गाय पर वीरता दिखाने की परंपरा नहीं है, क्योंकि इन्हें मारने पर पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपयश मिलता है।

आप ब्राह्मण होने के नाते पूज्य और अबध्य है अतः आप हमें मारेंगे तो भी हम आपके चरणों में ही पड़ेंगे। आपकी तो वाणी ही करोड़ों वज्जों के समान कठोर है फिर आप ये धनुष-बाण और कुठार व्यर्थ धारण करते हैं। हे मुनिवर ! आपके वेश को देखकर मैंने अनुचित बातें कह दीं उन्हें क्षमा कर दीजिए, क्योंकि आप तो बड़े धैर्यवान और क्षमाशील हैं। लक्ष्मण की ये व्यंग्यमयी बातें सुनकर भृगुवंश में श्रेष्ठ परशुराम कुद्ध होकर गंभीर वाणी में कहने लगे ।

पद की विशेष

(1) काव्यांश की भाषा साहित्यिक अवधी है। कवि ने प्रसंग को प्रभावशाली और रोचक बनाने के लिए सटीक शब्दों का चयन किया है। ‘कुम्हड़बतिया’ जैसे आंचलिक शब्द का भी प्रयोग हुआ है।

(2) शैली व्यंग्य और उपहासपूर्ण है।

(3) ‘मुनीसु महा’, ‘कछु कहा’, ‘कोटि कुलिस’ में अनुप्रास अलंकार है तथा ‘कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा’ में उपमा अलंकार है।

(4) ‘वीर’ तथा ‘रौद्र’ रस की सफल व्यंजना हुई है।

(5) दोनों ही पात्र शील की सीमाओं से बाहर जा रहे हैं।

(4)  कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु । कुटिलु कालबस निज कुल घालकु ।।

कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु । कुटिलु कालबस निज कुल घालकु ।।
भानुबंस राकेस कलंकू । निपट निरंकुसु अबुधु असंकू ।।
काल कवलु होइहि छन माहीं। कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं ।।
तुम्ह हटकहु जौ चहहु उबारा। कहि प्रतापु बल रोषु हमारा ।।
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा । तुम्हहि अछत को बरनै पारा ।।
अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी । बार अनेक भाँति बहु बरनी ।।
नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू । जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू ।।
बीरब्रती तुम धीर अछोभा । गारी देत न पावहु सोभा ।।
सूर समर करनी करहिं, कहि न जनावहिं आपु । विद्यमान रिपु पाइ रिपु, कायर कथहिं प्रतापु ।।

सन्दर्भ तथा प्रसंग

प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग-2 में संकलित, कविवर तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस’ महाकाव्य के बालकांड के तुलसीदास (राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद ) अवतरित है। इस अंश में लक्ष्मण के अपमानजनक व्यंग्यवचनों से क्रोधित परशुराम विश्वामित्र से उन्हें समझाने के लिए कह रहे हैं।

कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु । कुटिलु कालबस निज कुल घालकु ।।पद की व्याख्या

परशुराम ने विश्वामित्र से कहा – हे विश्वामित्र ! यह बालक लक्ष्मण बुद्धिहीन और कुटिल स्वभाव वाला । यह काल के वश होकर अपने कुल का भी नाश कराएगा । यह सूर्यवंशी होते हुए भी चन्द्रमा के कलंक के समान है। अत्यन्त स्वच्छन्द, मूर्ख और निडर है। यह क्षणभर में मेरे हाथों मारा जाएगा । मैं पुकार कर कह रहा हूँ कि फिर मुझे दोष मत देना। यदि आप इसे बचाना चाहते हैं तो इसे हमारे प्रताप, बल और क्रोध का परिचय कराके रोक लो ।

यह सुनकर लक्ष्मण ने कहा- हे मुनीश्वर ! आपके रहते हुए आपके यश का वर्णन और कौन अच्छी प्रकार कर सकता है । आपने अब तक अपने मुँह से अपने कार्यों की खूब प्रशंसा की है फिर भी यदि आपको संतोष न हुआ हो तो और कुछ कहिए । आप अपने क्रोध को मन में दबाकर असहनीय दुःख मत सहिए । आप तो वीरता का व्रत धारण करने वाले हैं, धैर्यवान हैं और क्षुब्ध न होने वाले हैं । आप इस प्रकार गाली देते शोभा नहीं पाते हैं। शूरवीर युद्ध में खुद वीरता का प्रदर्शन किया करते हैं वे अपने मुँह से अपनी प्रशंसा नहीं करते । कायर लोग ही युद्ध में शत्रु को सामने देखकर अपनी वीरता की डींग हाँका करते हैं ।

पद की विशेष

(1) पद्यांश की भाषा साहित्यिक, प्रवाहपूर्ण और पात्रों तथा प्रसंग के अनुरूप है।

(2) शैली व्यंग्य और उपहास से परिपूर्ण है।

(3) वीर और रौद्र रस की रोचक व्यंजना हुई है।

(4) ‘कुटिल काल’, ‘निपट निरंकुस’, ‘रिस रोकि’ तथा करहिं कहि…….’ आदि में अनुप्रास अलंकार है।’भानु बंस राकेस कलंकू’ में रूपक तथा उपमा अलंकार है।

( 5)  तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा । बार-बार मोहि लागि बोलावा ।।

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा । बार-बार मोहि लागि बोलावा ।।
सुनत लखन के बचन कठोरा । परसु सुधारि धरेउ कर घोरा ।।
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू । कटुबादी बालकु बधजोगू ।।
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा । अब येहु मरनिहार भा साँचा ।।
कौसिक कहा छमिअ अपराधू । बाल दोष गुन गनहिं न साधू ।।
खर कुठार मैं अकरुन कोही । आगे अपराधी गुरुद्रोही ।।
उतर देत छोड़ौं बिनु मारे । केवल कौसिक सील तुम्हारे ।।
न त येहि काटि कुठार कठोरे । गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे ।।
गाधिसूनु कह हृदय हसि, मुनिहि हरियरे सूझ ।। अयमय खाँड़ न ऊखमय, अजहुँ न बूझ अबूझ ।।

सन्दर्भ तथा प्रसंग 

प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग-2 में संकलित, महाकवि तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरित मानस’ महाकाव्य के बालकाण्ड के तुलसीदास (राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद ) उद्धृत है। लक्ष्मण अपने व्यंग्यपूर्ण कथनों से परशुराम की निरंतर उत्तेजित और कुद्ध कर रहे हैं। विश्वामित्र उनसे शांत होने का अनुरोध कर रहे हैं।

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा । बार-बार मोहि लागि बोलावा ।। पद की व्याख्या

लक्ष्मण ने परशुराम से कहा- आप तो मानो मृत्यु को अपने साथ हाँक कर ले आए हैं इसीलिए बार-बार मेरे लिए बुला रहे हैं । लक्ष्मण के ऐसे कठोर और व्यंग्यमय वचन सुनकर परशुराम ने अपने भयंकर फरसे को सँभालकर हाथ में ले लिया । वह कहने लगे – अब लोग मुझे इस बालक का वध करने पर दोष न दें। यह कटु वचन बोलने वाला लड़का मारने योग्य ही है । मैंने इसे बालक जानकर अब तक बहुत बचाया परन्तु अब यह वास्तव में मरने योग्य ही है।

बात बढ़ती देखकर विश्वामित्र ने परशुराम से कहा- मुनिवर ! सज्जन लोग बालकों के गुण-दोषों पर अधिक ध्यान नहीं देते इसलिए आप इसे क्षमा कर दीजिए। इस पर परशुराम ने कहा- मेरे हाथ में धारदार फरसा है और मैं बड़ा निर्दयी और क्रोधी हूँ। मेरे सामने घोर अपराधी और मेरे गुरु का अपमान करने वाला खड़ा है। वह बार-बार मुझे उत्तर पर उत्तर देता जा रहा है। इतना होते हुए भी मैं इसे आज बिना मारे छोड़ रहा हूँ तो केवल आपके शील स्वभाव के कारण। नहीं तो अब तक मैं इसे कठोर फरसे से काटकर थोड़े ही परिश्रम से अपने गुरु के ऋण से मुक्त हो जाता ।

यह सुन विश्वामित्र मन ही मन हँसे और सोचने लगे कि मुनि परशुराम को अब भी हरा ही हरा सूझ रहा है। यह इन राम-लक्ष्मण को भी उन साधारण क्षत्रियों जैसा समझ रहे हैं जिनको इन्होंने सहज ही मार गिराया था। इनको पता नहीं कि ये राजकुमार गन्ने के रस से बनी खाँड़ न होकर लोहे की खाँड़ हैं। इन पर पार पाना असम्भव है। अज्ञानवश मुनि सच्चाई को नहीं समझ पा रहे हैं।

पद की विशेष

(1) काव्यांश की भाषा मुहावरेदार और व्यंग्य तथा रौद्र रस के अनुरूप है।

(2) परशुराम के क्रोधावेश का बड़ा सजीव और स्वाभाविक वर्णन हुआ है।

(3) रौद्र रस के अनुभावों का प्रकाशन बड़ा सजीव है।

(4) ‘बाल बिलोकि बहुत’, ‘गुन गनहिं न’ तथा ‘केवल कौसिक’ में अनुप्रास अलंकार है। ‘बार-बार’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

(6)  कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा । को नहिं जान बिदित संसारा ।।

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा । को नहिं जान बिदित संसारा ।।
माता पितहिं उरिन भए नीकें । गुरुरिन रहा सोचु बड़ जी कें ।।
सो जनु हमरेहिं माथें काढ़ा । दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा ।।
अब आनिअ व्यवहरिआ बोली । तुरत देउँ मैं थैली खोली ।।
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा । हाय हाय सब सभा पुकारा ।।
भृगुबर परसु देखाबहु मोही। बिप्र बिचारि बचौं नृपद्रोही ।।
मिले न कबहूँ सुभट रन गाढ़े । द्विज देवता घरहि के बाढ़े ।।
अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे। रघुपति सयनहि लखनु नेवारे ।।
लखन उतर आहुति सरिस, भृगुबर कोपु कृसानु ।
बढ़त देखि जल सम बचन, बोले रघुकुल भानु ।।

सन्दर्भ तथा प्रसंग 

प्रस्तुत काव्यांश क्षितिज भाग-2 में संकलित, कवि तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ नामक महाकाव्य के बालकाण्ड के तुलसीदास (राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद ) लिया गया है। इस प्रसंग में लक्ष्मण परशुराम के बड़बोलेपन पर व्यंग्य करके उन्हें चिढ़ा रहे हैं। उनके सीमा से बाहर, कठोर वचनों को लोग अनुचित बता रहे हैं। राम उन्हें संकेत से चुप हो जाने को कह रहे हैं।

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा । को नहिं जान बिदित संसारा ।। पद की व्याख्या

लक्ष्मण ने परशुराम से कहा आप कितने शील-स्वभाव वाले हैं यह बात सारा संसार जानता है । माता-पिता के ऋण से तो आप बड़ी अच्छी तरह मुक्त हो गए लेकिन गुरु का ऋण बाकी रह जाने से आपके मन में बड़ी चिंता थी । आपने उस ऋण को हमारे माथे मढ़ दिया। दिन भी बहुत हो गए इसलिए इस ऋण का ब्याज भी काफी बढ़ गया होगा । अब आप किसी हिसाब लगाने वाले को बुला लीजिए। आपका जितना ऋण निकलेगा मैं तुरंत थैली खोलकर चुका दूँगा ।

लक्ष्मण के इन कटु व्यंग्य वचनों को सुनकर परशुराम ने अपना फरसा सँभाल लिया। वह लक्ष्मण पर प्रहार करने को उद्यत हो गए। यह देख सारी सभा हाहाकार करने लगी । इतने पर भी लक्ष्मण चुप नहीं हुए और बोले- हे भृगुवंशी ! आप मुझे फरसा दिखाकर डराना चाहते हो। अरे क्षत्रियों के शत्रु ! आप ब्राह्मण हो इसीलिए मैं आपसे युद्ध करने से बच रहा हूँ। आपका अभी तक युद्ध में अच्छे योद्धाओं से पाला नहीं पड़ा । आप घर में ही वीर बने हुए हो। लक्ष्मण को अभद्र वचन कहते देखकर सभी लोग उनके व्यवहार की निन्दा करने लगे तब राम ने नेत्रों के संकेत से लक्ष्मण को अधिक बोलने से मना किया ।

परशुराम की क्रोधरूपी अग्नि को लक्ष्मण के उत्तर आहुति के समान भड़का रहे थे । तब क्रोधाग्नि को बढ़ते देखकर राम ने जल के समान शीतल वचन बोलकर परशुराम के क्रोध को शांत करने का प्रयास किया ।

पद की विशेष

(1) काव्यांश की भाषा साहित्यिक और प्रवाहपूर्ण है। माथे काढ़ना, घर के ही बड़े होना आदि मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से भाषा भावों को व्यक्त करने में समर्थ है। पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग है।

(2) छंद चौपाई तथा दोहा हैं।

(3) रस वीर और रौद्र हैं।

(4) ‘ब्याज बड़ बाढ़ा’, ‘बिप्र बिचारि बचउँ’ में अनुप्रास ‘हाय हाय’ में पुनरुक्ति प्रकाश, ‘लखन उत्तर आहुति सरिस’, ‘जल सम वचन’ में उपमा तथा ‘रघुकुल भानु’ में रूपक अलंकार है। ‘मात पितहिं उरिन भए नीकें’ में वक्रोक्ति अलंकार है।

गोस्वामी तुलसीदास का जन्म कहा हुआ?

तुलसीदास का जन्म सन् 1532 में बाँदा (उ.प्र.) जिले के राजापुर गाँव में हुआ था।

गोस्वामी तुलसीदास की प्रमुख रचनाओ के क्या नाम है?

रामचरितमानस, कवितावली, गीतावली, दोहावली, कृष्ण गीतावली तथा विनयपत्रिका आदि

गोस्वामी तुलसीदास की रचना की भाषा क्या है?

गोस्वामी तुलसीदास का अवधी और ब्रजभाषा दोनों पर समान अधिकार था।

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