भगवतीचरण वर्मा की प्रसिद्ध कविताएं | Bhagavaticharan Varma Ki Prasiddh Kavitaen

छायावादी कवि और प्रेमचंदोत्तर युग के प्रमुख उपन्यासकार हैं भगवती चरण वर्मा । इस post में हम भगवतीचरण वर्मा के कुछ प्रसिद्ध कविताएं पढ़ेंगे।

भगवतीचरण वर्मा का जीवन परिचय

छायावादी कवि और प्रेमचंदोत्तर युग के प्रमुख उपन्यासकार और कवि हैं भगवती चरण वर्मा । भगवती चरण वर्मा का जन्म उन्नाव में 30 अगस्त 1903 को में हुआ था तथा इनका निधन:-1 अक्तूबर 1981 में हुआ था।

भगवतीचरण वर्मा की प्रसिद्ध कविताएं

हम दीवानों की क्या हस्ती / भगवतीचरण वर्मा

हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले ।
मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले ।

आए बनकर उल्लास कभी, आंसू बनकर बह चले अभी
सब कहते ही रह गए, अरे, तुम कैसे आए, कहाँ चले ।

किस ओर चले? मत ये पूछो, बस, चलना है इसलिए चले
जग से उसका कुछ लिए चले, जग को अपना कुछ दिए चले ।

दो बात कहीं, दो बात सुनी, कुछ हंसे और फिर कुछ रोए
छक कर सुख-दुःख के घूँटों को, हम एक भाव से पिए चले ।

हम भिखमंगों की दुनिया में, स्वछन्द लुटाकर प्यार चले
हम एक निशानी उर पर, ले असफलता का भार चले ।

हम मान रहित, अपमान रहित, जी भर कर खुलकर खेल चुके
हम हँसते हँसते आज यहाँ, प्राणों की बाजी हार चले ।

हम भला-बुरा सब भूल चुके, नतमस्तक हो मुख मोड़ चले
अभिशाप उठाकर होठों पर, वरदान दृगों से छोड़ चले ।

अब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले
हम स्वयं बन्धे थे और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले ।

मानव / भगवतीचरण वर्मा

जब किलका को मादकता में
हंस देने का वरदान मिला
जब सरिता की उन बेसुध सी
लहरों को कल कल गान मिला

जब भूले से भरमाए से
भ्रमरों को रस का पान मिला
तब हम मस्तों को हृदय मिला
मर मिटने का अरमान मिला।

पत्थर सी इन दो आंखो को
जलधारा का उपहार मिला
सूनी सी ठंडी सांसों को
फिर उच्छवासो का भार मिला

युग युग की उस तन्मयता को
कल्पना मिली संचार मिला
तब हम पागल से झूम उठे
जब रोम रोम को प्यार मिला

आज शाम है बहुत उदास / भगवतीचरण वर्मा

आज शाम है बहुत उदास
केवल मैं हूँ अपने पास ।

दूर कहीं पर हास-विलास
दूर कहीं उत्सव-उल्लास
दूर छिटक कर कहीं खो गया
मेरा चिर-संचित विश्वास ।

कुछ भूला सा और भ्रमा सा
केवल मैं हूँ अपने पास
एक धुन्ध में कुछ सहमी सी
आज शाम है बहुत उदास ।

एकाकीपन का एकान्त
कितना निष्प्रभ, कितना क्लान्त ।

थकी-थकी सी मेरी साँसें
पवन घुटन से भरा अशान्त,
ऐसा लगता अवरोधों से
यह अस्तित्व स्वयं आक्रान्त ।

अंधकार में खोया-खोया
एकाकीपन का एकान्त
मेरे आगे जो कुछ भी वह
कितना निष्प्रभ, कितना क्लान्त ।

उतर रहा तम का अम्बार
मेरे मन में व्यथा अपार ।

आदि-अन्त की सीमाओं में
काल अवधि का यह विस्तार
क्या कारण? क्या कार्य यहाँ पर ?
एक प्रश्न मैं हूँ साकार ।

क्यों बनना? क्यों बनकर मिटना ?
मेरे मन में व्यथा अपार
औ समेटता निज में सब कुछ
उतर रहा तम का अम्बार ।

सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
आज शाम है बहुत उदास ।

जोकि आज था तोड़ रहा वह
बुझी-बुझी सी अन्तिम साँस
और अनिश्चित कल में ही है
मेरी आस्था, मेरी आस ।

जीवन रेंग रहा है लेकर
सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
और डूबती हुई अमा में
आज शाम है बहुत उदास ।

देखो-सोचो-समझो / भगवतीचरण वर्मा

देखो, सोचो, समझो, सुनो, गुनो औ’ जानो
इसको, उसको, सम्भव हो निज को पहचानो
लेकिन अपना चेहरा जैसा है रहने दो,
जीवन की धारा में अपने को बहने दो

तुम जो कुछ हो वही रहोगे, मेरी मानो ।

वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रबुद्ध ज्ञानी हो
तुम समर्थ, तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो
लेकिन अचरज इतना, तुम कितने भोले हो
ऊपर से ठोस दिखो, अन्दर से पोले हो

बन कर मिट जाने की एक तुम कहानी हो ।

पल में रो देते हो, पल में हँस पड़ते हो,
अपने में रमकर तुम अपने से लड़ते हो
पर यह सब तुम करते – इस पर मुझको शक है,
दर्शन, मीमांसा – यह फुरसत की बकझक है,

जमने की कोशिश में रोज़ तुम उखड़ते हो ।

थोड़ी-सी घुटन और थोड़ी रंगीनी में,
चुटकी भर मिरचे में, मुट्ठी भर चीनी में,
ज़िन्दगी तुम्हारी सीमित है, इतना सच है,
इससे जो कुछ ज्यादा, वह सब तो लालच है

दोस्त उम्र कटने दो इस तमाशबीनी में ।

धोखा है प्रेम-बैर, इसको तुम मत ठानो
कडु‌आ या मीठा ,रस तो है छक कर छानो,
चलने का अन्त नहीं, दिशा-ज्ञान कच्चा है
भ्रमने का मारग ही सीधा है, सच्चा है

जब-जब थक कर उलझो, तब-तब लम्बी तानो ।

संकोच-भार को सह न सका / भगवतीचरण वर्मा

संकोच-भार को सह न सका
पुलकित प्राणों का कोमल स्वर
कह गये मौन असफलताओं को
प्रिय आज काँपते हुए अधर।


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छिप सकी हृदय की आग कहीं ?
छिप सका प्यार का पागलपन ?
तुम व्यर्थ लाज की सीमा में
हो बाँध रही प्यासा जीवन।

तुम करूणा की जयमाल बनो,
मैं बनूँ विजय का आलिंगन
हम मदमातों की दुनिया में,
बस एक प्रेम का हो बन्धन।

आकुल नयनों में छलक पड़ा
जिस उत्सुकता का चंचल जल
कम्पन बन कर कह गई वही
तन्मयता की बेसुध हलचल।

तुम नव-कलिका-सी-सिहर उठीं
मधु की मादकता को छूकर
वह देखो अरुण कपोलों पर
अनुराग सिहरकर पड़ा बिखर।

तुम सुषमा की मुस्कान बनो
अनुभूति बनूँ मैं अति उज्जवल
तुम मुझ में अपनी छवि देखो,
मैं तुममें निज साधना अचल।

पल-भर की इस मधु-बेला को
युग में परिवर्तित तुम कर दो
अपना अक्षय अनुराग सुमुखि,
मेरे प्राणों में तुम भर दो।

तुम एक अमर सन्देश बनो,
मैं मन्त्र-मुग्ध-सा मौन रहूँ
तुम कौतूहल-सी मुसका दो,
जब मैं सुख-दुख की बात कहूँ।

तुम कल्याणी हो, शक्ति बनो
तोड़ो भव का भ्रम-जाल यहाँ
बहना है, बस बह चलो, अरे
है व्यर्थ पूछना किधर-कहाँ?

थोड़ा साहस, इतना कह दो
तुम प्रेम-लोक की रानी हो
जीवन के मौन रहस्यों की
तुम सुलझी हुई कहानी हो।

तुममें लय होने को उत्सुक
अभिलाषा उर में ठहरी है
बोलो ना, मेरे गायन की
तुममें ही तो स्वर-लहरी है।

होंठों पर हो मुस्कान तनिक
नयनों में कुछ-कुछ पानी हो
फिर धीरे से इतना कह दो
तुम मेरी ही दीवानी हो।

बस इतना–अब चलना होगा / भगवतीचरण वर्मा

बस इतना-अब चलना होगा
फिर अपनी-अपनी राह हमें।

कल ले आई थी खींच, आज
ले चली खींचकर चाह हमें
तुम जान न पाईं मुझे, और
तुम मेरे लिए पहेली थीं;
पर इसका दुख क्या? मिल न सकी
प्रिय जब अपनी ही थाह हमें।

तुम मुझे भिखारी समझें थीं,
मैंने समझा अधिकार मुझे
तुम आत्म-समर्पण से सिहरीं,
था बना वही तो प्यार मुझे।

तुम लोक-लाज की चेरी थीं,
मैं अपना ही दीवाना था
ले चलीं पराजय तुम हँसकर,
दे चलीं विजय का भार मुझे।

सुख से वंचित कर गया सुमुखि,
वह अपना ही अभिमान तुम्हें
अभिशाप बन गया अपना ही
अपनी ममता का ज्ञान तुम्हें
तुम बुरा न मानो, सच कह दूँ,
तुम समझ न पाईं जीवन को
जन-रव के स्वर में भूल गया
अपने प्राणों का गान तुम्हें।


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था प्रेम किया हमने-तुमने
इतना कर लेना याद प्रिये,
बस फिर कर देना वहीं क्षमा
यह पल-भर का उन्माद प्रिये।
फिर मिलना होगा या कि नहीं
हँसकर तो दे लो आज विदा
तुम जहाँ रहो, आबाद रहो,
यह मेरा आशीर्वाद प्रिये।

मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ / भगवतीचरण वर्मा

मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ
अपने प्रकाश की रेखा
तम के तट पर अंकित है
निःसीम नियति का लेखा

देने वाले को अब तक
मैं देख नहीं पाया हूँ,
पर पल भर सुख भी देखा
फिर पल भर दुख भी देखा।

किस का आलोक गगन से
रवि शशि उडुगन बिखराते?
किस अंधकार को लेकर
काले बादल घिर आते?

उस चित्रकार को अब तक
मैं देख नहीं पाया हूँ,
पर देखा है चित्रों को
बन-बनकर मिट-मिट जाते।

फिर उठना, फिर गिर पड़ना
आशा है, वहीं निराशा
क्या आदि-अन्त संसृति का
अभिलाषा ही अभिलाषा?

अज्ञात देश से आना,
अज्ञात देश को जाना,
अज्ञात अरे क्या इतनी
है हम सब की परिभाषा?

पल-भर परिचित वन-उपवन,
परिचित है जग का प्रति कन,
फिर पल में वहीं अपरिचित
हम-तुम, सुख-सुषमा, जीवन।

है क्या रहस्य बनने में?
है कौन सत्य मिटने में?
मेरे प्रकाश दिखला दो
मेरा भूला अपनापन ।

पतझड़ के पीले पत्तों ने / भगवतीचरण वर्मा

पतझड़ के पीले पत्तों ने
प्रिय देखा था मधुमास कभी;
जो कहलाता है आज रुदन,
वह कहलाया था हास कभी;
आँखों के मोती बन-बनकर
जो टूट चुके हैं अभी-अभी
सच कहता हूँ, उन सपनों में
भी था मुझको विश्वास कभी ।

आलोक दिया हँसकर प्रातः
अस्ताचल पर के दिनकर ने;
जल बरसाया था आज अनल
बरसाने वाले अम्बर ने;
जिसको सुनकर भय-शंका से
भावुक जग उठता काँप यहाँ;
सच कहता-हैं कितने रसमय
संगीत रचे मेरे स्वर ने ।


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तुम हो जाती हो सजल नयन
लखकर यह पागलपन मेरा;
मैं हँस देता हूँ यह कहकर
“लो टूट चुका बन्धन मेरा!”
ये ज्ञान और भ्रम की बातें-
तुम क्या जानो, मैं क्या जानूँ ?
है एक विवशता से प्रेरित
जीवन सबका, जीवन मेरा !

कितने ही रस से भरे हृदय,
कितने ही उन्मद-मदिर-नयन,
संसृति ने बेसुध यहाँ रचे
कितने ही कोमल आलिंगन;
फिर एक अकेली तुम ही क्यों
मेरे जीवन में भार बनीं ?
जिसने तोड़ा प्रिय उसने ही
था दिया प्रेम का यह बन्धन !

कब तुमने मेरे मानस में
था स्पन्दन का संचार किया ?
कब मैंने प्राण तुम्हारा निज
प्राणों से था अभिसार किया ?
हम-तुमको कोई और यहाँ
ले आया-जाया करता है;
मैं पूछ रहा हूँ आज अरे
किसने कब किससे प्यार किया ?

जिस सागर से मधु निकला है,

जिस सागर से मधु निकला है,
विष भी था उसके अन्तर में,
प्राणों की व्याकुल हूक-भरी
कोयल के उस पंचम स्वर में;
जिसको जग मिटना कहता है,
उसमें ही बनने का क्रम है;
तुम क्या जानो कितना वैभव
है मेरे इस उजड़े घर में ?

मेरी आँखों की दो बूँदों
में लहरें उठतीं लहर-लहर;
मेरी सूनी-सी आहों में
अम्बर उठता है मौन सिहर,
निज में लय कर ब्रह्माण्ड निखिल
मैं एकाकी बन चुका यहाँ,
संसृति का युग बन चुका अरे
मेरे वियोग का प्रथम प्रहर !

कल तक जो विवश तुम्हारा था,
वह आज स्वयं हूँ मैं अपना;
सीमा का बन्धन जो कि बना,
मैं तोड़ चुका हूँ वह सपना;
पैरों पर गति के अंगारे,
सर पर जीवन की ज्वाला है;
वह एक हँसी का खेल जिसे
तुम रोकर कह देती ‘तपना’।

मैं बढ़ता जाता हूँ प्रतिपल,
गति है नीचे गति है ऊपर;
भ्रमती ही रहती है पृथ्वी,
भ्रमता ही रहता है अम्बर !
इस भ्रम में भ्रमकर ही भ्रम के
जग में मैंने पाया तुमको;
जग नश्वर है, तुम नश्वर हो,
बस मैं हूँ केवल एक अमर !

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