शमशेर बहादुर सिंह की प्रसिद्ध कविताएं | Shamasher Bahadur Singh Ki Prasiddh Kavitaen

शमशेर बहादुर सिंह जी आधुनिक हिंदी कविता के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इस post में हम शमशेर बहादुर सिंह के कुछ प्रसिद्ध कविताएं पढ़ेंगे।

शमशेर बहादुर सिंह का जीवन परिचय

आधुनिक हिंदी कविता के प्रमुख कवियों में से एक हैंशमशेर बहादुर सिंह। शमशेर जी को नई कविता के महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में जाना जाता हैं।
शमशेर का जन्म 13 जनवरी 1911 को देहरादून में हुआ तथा इनका निधन 12 मई 1993 में हुआ।

शमशेर बहादुर सिंह की रचनाएं हैं :-

कुछ कविताएँ (1956), कुछ और कविताएँ (1961), चुका भी नहीं हूँ मैं (1975), इतने पास अपने (1980), उदिता-अभिव्यक्ति का संघर्ष (1980), बात बोलेगी (1981), काल तुझसे होड़ है मेरी (1988) इनके कविता-संग्रह हैं जबकि प्लाट का मोर्चा’ इनका एकमात्र कहानी-संग्रह है। ‘दोआब’ इनकी आलोचनात्मक कृति है। शमशेर जी का समग्र गद्य ‘कु्छ गद्य रचनाएँ’ तथा ‘कुछ और गद्य रचनाएँ’ नामक पुस्तकों में संगृहीत हैं।

‘चुका भी नहीं हूँ मैं’ कविता-संग्रह के लिए इन्हें वर्ष 1977 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

काल तुझ से होड़ है मेरी (कविता) / शमशेर बहादुर सिंह

काल,
तुझसे होड़ है मेरी: अपराजित तू-
तुझमें अपराजित मैं वास करूं ।
इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूं
सीधा तीर-सा, जो रुका हुआ लगता हो-
कि जैसा ध्रुव नक्षत्र भी न लगे,
एक एकनिष्ठ, स्थिर, कालोपरि
भाव, भावोपरि
सुख, आनंदोपरि
सत्य, सत्यासत्योपरि
मैं- तेरे भी, ओ’ ‘काल’ ऊपर!
सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल !

जो मैं हूं-
मैं कि जिसमें सब कुछ है…

क्रांतियां, कम्यून,
कम्यूनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं ।

मैं, जो वह हरेक हूं
जो, तुझसे, ओ काल, परे है

परम्परा / शमशेर बहादुर सिंह

लोक – भावना ने जिनको
आगे रक्खा चुन :
‘रेणु’ फणीश्वरनाथ, साथ
‘ यात्री’ नागार्जुन —
कथाकार कवि दो
बिहार के जाग्रत सपने :
सत्साहित्यिक, भारत की
जनता के अपने :
यह बात दिला दी याद फिर
दोनों के कारागार ने
थी राहुल को भी हथकड़ी
दी कांग्रेस की सरकार ने ।

मन / शमशेर बहादुर सिंह

मोह मीन गगन लोक में
बिछल रही
लोप हो कभी अलोप हो कभी
छल रही।
मन विमुग्ध
नीलिमामयी परिक्रमा लिये,
पृथ्वी-सा घूमता
घूमता
(दिव्यधूम तप्त वह)
जाने किन किरणों को चूमता,
झूमता-
जाने किन…
मुग्ध लोल व्योम में
मौन वृत्त भाव में रमा
मन,
मोह के गगन विलोकता
भाव-नीर में अलोप हो
कभी
लोप हो,
जाने क्या लोकता
मन!

राह तो एक थी / शमशेर बहादुर सिंह

राह तो एक थी हम दोनों की आप किधर से आए गए
हम जो लुट गए पिट गए, आप तो राजभवन में पाए गए

किस लीला युग में आ पहुँचे अपनी सदी के अंत में हम
नेता, जैसे घास फूस के रावण खड़े कराए गए

जितना ही लाउडस्पीकर चीख़ा उतना ही ईश्वर दूर हुआ
उतने ही दंगे फैले जितने ‘दीन धरम’ फैलाए गए

दादा की गोद में पोता बैठा ‘महबूबा! महबूबा गाए
दादी बैठी मूड़ हिलाए हम किस जुग में आए गए

गीत ग़ज़ल है फ़िल्मी लय में शुद्ध गलेबाज़ी शमशेर
आज कहां वो गीत जो कल थे गलियों गलियों गाए गए

वह सलोना जिस्म / शमशेर बहादुर सिंह

शाम का बहता हुआ दरिया कहाँ ठहरा!
साँवली पलकें नशीली नींद में जैसे झुकें
चाँदनी से भरी भारी बदलियाँ हैं,
ख़ाब में गीत पेंग लेते हैं
प्रेम की गुइयाँ झुलाती हैं उन्हें :
– उस तरह का गीत, वैसी नींद, वैसी शाम-सा है
वह सलोना जिस्म।

उसकी अधखुली अँगड़ाइयाँ हैं
कमल के लिपटे हुए दल
कसें भीनी गंध में बेहोश भौंरे को।

वह सुबह की चोट है हर पंखुड़ी पर।

रात की तारों भरी शबनम
कहाँ डूबी है!

नर्म कलियों के
पर झटकते हैं हवा की ठंड को।

तितलियाँ गोया चमन की फ़िज़ा में नश्तर लगाती हैं।

– एक पल है यह समाँ
जागे हुए उस जिस्म का!

जहाँ शामें डूब कर फिर सुबह बनती हैं
एक-एक –
और दरिया राग बनते हैं – कमल
फ़ानूस – रातें मोतियों की डाल –
दिन में
साड़ियों के से नमूने चमन में उड़ते छबीले; वहाँ
गुनगुनाता भी सजीला जिस्म वह –
जागता भी
मौन सोता भी, न जाने
एक दुनिया की
उमीद-सा,
किस तरह!

रुबाई / शमशेर बहादुर सिंह

हम अपने खयाल को सनम समझे थे,
अपने को खयाल से भी कम समझे थे!
होना था- समझना न था कुछ भी, शमशेर,
होना भी कहाँ था वह जो हम समझे थे!

था बहती सदफ में बंद यकता गौहर:
ऐसे आलम में किसको तकता गौहर!
दिल अपना जो देख सकता ठहरा है कहाँ-
दरिया का सुकून देख सकता गौहर!

बादलो / शमशेर बहादुर सिंह

ये हमारी तुम्‍हारी कहाँ की मुलाक़ात है, बादलो !
कि तुम
दिल के क़रीब लाके,बिल्‍कुल ही
दिल से मिला के ही जैसे
अपने फ़ाहा-से गाल
सेंकते जाते हो…।
आज कोई ज़ख़्म‍
इतना नाज़ुक नहीं
जितना यह वक़्त है
जिसमें हम-तुम
सब रिस रहे हैं
चुप-चुप।
धूप अब
तुम पर
छतों पर
और मेरे सीने पर…
डूबती जाती है
हल्‍की-हल्‍की
नश्‍तर-सी
वह चमक

अज्ञेय से / शमशेर बहादुर सिंह

जो नहीं है
जैसे कि सुरुचि
उसका ग़म क्या?
वह नहीं है ।

किससे लड़ना ?

रुचि तो है शांति,
स्थिरता,
काल-क्षण में
एक सौन्दर्य की
मौन अमरता ।
अस्थिर क्यों होना
फिर ?

जो है
उसे ही क्यों न संजोना ?
उसी के क्यों न होना ?-
जो कि है ।

जो नहीं है
जैसे कि सुरुचि
उसका ग़म क्या ?
वह नहीं है ।

चांद से थोड़ी-सी गप्पें / शमशेर बहादुर सिंह

गोल हैं ख़ूब मगर

आप तिरछे नज़र आते हैं ज़रा ।
आप पहने हुए हैं कुल आकाश
तारों-जड़ा;
सिर्फ़ मुंह खोले हुए हैं अपना
गोरा-चिट्टा
गोल-मटोल,
अपनी पोशाक को फैलाए हुए चारों सिम्त ।
आप कुछ तिरछे नज़र आते हैं जाने कैसे
-ख़ूब हैं गोकि!

वाह जी वाह!
हमको बुद्धू ही निरा समझा है!
हम समझते ही नहीं जैसे कि
आपको बीमारी है :
आप घटते हैं तो घटते ही चले जाते हैं,
और बढ़ते हैं तो बस यानी कि
बढ़ते ही चले जाते हैं-
दम नहीं लेते हैं जब तक बि ल कु ल ही
गोल न हो जाएं,
बिलकुल गोल ।
यह मरज आपका अच्छा ही नहीं होने में…

हार-हार समझा मैं / शमशेर बहादुर सिंह

हार-हार
समझा मैं तुमको
अपने पार।

हँसी बन
खिली सांझ –
बुझने को ही।

एक हाय-हाय की रात
बीती न थी
कि दिन हुआ।
हार-हार…

कहो तो क्या न कहें, पर कहो तो क्योंकर हो / शमशेर बहादुर सिंह

कहो तो क्‍या न कहें, पर कहो तो क्‍योंकर हो,
जो बात-बात में आ जायँ वो, तो क्‍योंकर हो!

हमारी बात हमीं से सुनो तो कैसा हो,
मगर ये जाके उन्‍हीं से कहो तो क्‍योंकर हो!

ये बेदिली ही न हो संगे-आस्‍तान-ए-यार,
वगरना इश्‍क की मंजिल ये हो तो क्‍योंकर हो!

करीबे-हुस्‍न जो पहुँचा तो गम कहाँ पहुँचा-
हमीं को होश नहीं, आपको तो क्‍योंकर हो!

खयाल हो कि मेरे दिल का वहम हो,
आखिर तुम्‍हीं जो एक न अपने बनों, तो क्‍योंकर हो!

जमाना तुम हो- जहाँ तुम हो- जिंदगी तुम हो
जो अपनी बात पे कायम रहो, तो क्‍योंकर हो!

हमारा बस है कोई, आह की, हुए खामोश
मगर जो ये भी सहारा न हो तो क्‍योंकर हो!

हरेक तरह वही आरजू बनें मेरी
ये जिंदगी का बहाना न हो, तो क्‍योंकर हो!

ये सब सही है मगर ऐ मेरे दिले-नाशाद
कोई भी गम के सिवा दोस्‍त हो तो क्‍योंकर हो!

ये साँस में जो उसी नम की अटक-सी है,
वो जिंदगी से फरामोश हो तो क्‍योंकर हो!

जो आरजू में नहीं, अब वो साँस में कुछ है,
वो, आह, दिल से फरामोश हो तो क्‍योंकर हो!

हजार हम उसे चाहें कि अब न चाहें और,
जो साँस-साँस में रम जाय वो, तो क्‍योंकर हो!

प्रेम / शमशेर बहादुर सिंह

द्रव्य नहीं कुछ मेरे पास
फिर भी मैं करता हूँ प्यार
रूप नहीं कुछ मेरे पास
फिर भी मैं करता हूं प्यार
सांसारिक व्यवहार न ज्ञान
फिर भी मैं करता हूँ प्यार
शक्ति न यौवन पर अभिमान
फिर भी मैं करता हूँ प्यार
कुशल कलाविद् हूँ न प्रवीण
फिर भी मैं करता हूँ प्यार
केवल भावुक दीन मलीन
फिर भी मैं करता हूँ प्यार।

मैंने कितने किए उपाय
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
सब विधि था जीवन असहाय
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
सब कुछ साधा, जप, तप, मौन
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
कितना घूमा देश-विदेश
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
तरह-तरह के बदले वेष
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम।

उसकी बात-बात में छल है
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
माया ही उसका संबल है
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
वह वियोग का बादल मेरा
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
छाया जीवन आकुल मेरा
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
केवल कोमल, अस्थिर नभ-सी
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
वह अंतिम भय-सी, विस्मय-सी
फिर भी है वह अनुपम सुंदर ।

दूब / शमशेर बहादुर सिंह

मोटी, धुली लॉन की दूब,
साफ़ मखमल की कालीन
ठंडी धुली सुनहरी धूप

हलकी मीठी चा-सा दिन,
मीठी चुस्की-सी बातें,
मुलायम बाहों-सा अपनाव

पलकों पर हौले-हौले
तुम्हारे फूल से पाँव
मानो भूलकर पड़ते
हृदय के सपनों पर मेरे
अकेला हूँ आओ

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