प्रेमचंद के फटे जूते | Class-IX, Chapter-5 (CBSE/NCERT)

प्रेमचंद के फटे जूते (Premachand ke phate joote)

लेखक- हरिशंकर परसाई

लेखक-परिचय

हरिशंकर परसाई का जन्म सन् 1922 ई. में मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के जमानी नामक स्थान पर हुआ था। इन्होने स्नातक-स्तर तक की शिक्षा मध्य प्रदेश में ही प्राप्त की । ये नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. करके अध्यापन कार्य में प्रवृत्त हो गये । परसाईजी का स्वाभिमानी स्वभाव इस जीविका से पटरी न बिठा सका, साथ ही अध्यापन करते हुए उनको साहित्यिक सृजन में भी असुविधा अनुभव होने लगी। अत: अध्यापन कार्य त्यागकर  इन्होने साहित्य-साधना में ही अपना जीवन समर्पित कर दिया ।

परसाईजी ने ‘वसुधा’ नामक पत्रिका का भी काफी समय तक सम्पादन एवं प्रकाशन कार्य किया। इनके निबंध और व्यंग्य सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। इन्होने सामाजिक रूढ़ियों, राजनैतिक विडम्बनाओं तथा सामाजिक समस्याओं को अपने व्यंग्य-वाणों का लक्ष्य बनाया और एक व्यंग्यकार के रूप में यथेष्ठ कीर्ति अर्जित की । इनका देहावसान सन् 1995 ई. में हुआ ।

परसाई जी की प्रमुख रचनाएँ

परसाई जी की प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं- हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, भूत के पाँव पीछे, सदाचार का तावीज़, बेईमानी की परत और अन्त में पगडंडियों का ज़माना, शिकायत मुझे भी है, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, विकलांग श्रद्धा का दौर, वैष्णव की फिसलन, तिरछी रेखाएँ, तब की बात और थी, रानी नागफनी की कहानी,  तट की खोज आदि ।

साहित्यिक विशेषताएँ- परसाईजी हिन्दी के श्रेष्ठतम व्यंग्यकार थे। उनकी व्यंग्य रचनाएँ केवल पाठकों को हँसाने के लिए नहीं थीं, वे उनके माध्यम से भारतीय समाज में व्याप्त कुरूपताओं पर भी गहरी चोट करते हैं । विशेष रूप से उन्होंने हमारे सामाजिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार और पाखंड को नग्न किया है । परसाईजी की भाषा और शैली अन्य सभी व्यंग्यकारों से अलग दिखाई देती है । उनका शब्द-चयन बड़ा सटीक और प्रभावशाली है । भाषा को व्यावहारिक और प्रवाहपूर्ण बनाने के लिए उन्होंने अँग्रेजी और उर्दू शब्दों का मुक्तभाव से प्रयोग किया है । इनकी  शैली व्यंग्य प्रधान है । उसमें तीखापन, तथ्य को गहराई तक उतार देने की अपूर्व क्षमता है ।

पाठ-सार
प्रेमचंद एक तस्वीर में

लेखक के सामने प्रेमचंद और उनकी पत्नी की एक तस्वीर है । प्रेमचंद कुरता- धोती पहने हुए हैं और उनके सिर पर गांधी टोपी है । गालों की हड्डियाँ उभरी हुई हैं। पैरों में केनवस के जूते हैं, जो फटे होने के कारण बेतरतीब बँधे हैं। बायें पैर के जूते में एक बड़ा छेद हो गया है, जिसमें से अँगुली बाहर निकल आई है ।

लेखक चिंता में

प्रेमचंद के फटे जूते देखकर लेखक इसलिए चिन्तित हो जाता है कि अगर फोटो खिंचाते समय वेशभूषा का यह हाल है तो वास्तविक जीवन में क्या रहा होगा । किंतु फिर सोचता है कि प्रेमचंद अंदर-बाहर की अलग-अलग पोशाक रखने वाले व्यक्ति नहीं है । लेखक सोचने लगा कि प्रेमचंद हमारे साहित्यिक पुरखे हैं, फिर भी उन्हें अपने फटे जूते का जरा भी ख्याल नहीं है । उनके चेहरे पर बड़ी लापरवाही और विश्वास है।

फोटो में व्यंग्य

भरी मुस्कान- आश्चर्य की बात यह है कि फोटो में प्रेमचंद के चेहरे पर एक व्यंग्य-भरी मुस्कान है । लेखक सोचता है कि प्रेमचंद ने फटे जूते में फोटो खिंचाने से मना इसलिए नहीं किया क्योंकि कि शायद पत्नी का आग्रह रहा होगा । लेखक प्रेमचन्द के दुःख को देखकर रोना चाहता है किंतु प्रेमचंद की आँखों का दर्द उसे रोक देता है ।

परसाई जी सोचते है कि लोग फोटो खिंचवाने के लिए कपड़े, जूते ही क्यों बीवी तक दूसरों से माँग लेते हैं । फिर प्रेमचंद ने ऐसा क्यों नहीं किया। आजकल तो लोग फोटो इत्र लगाकर खिंचवाते हैं ताकि फोटो में से सुगंध आए। लेखक को प्रेमचंद का फटा जूता देखकर बड़ा दुःख होता है ।

लेखक के घिसे जूते

लेखक का जूता भी ऊपर से अच्छा दिखता है किंतु उसका तला घिस चुका है। वह कहता है, मैं ऊपरी पर्दे का ध्यान रखता हूँ, इसलिए अँगुली को बाहर नहीं निकलने देता । मैं फटा हुआ जूता पहनकर फोटो तो कभी खिंचवा ही नहीं सकता ।

प्रेमचंद की व्यंग्य हँसी का रहस्य

लेखक सोचता है कि प्रेमचंद की व्यंग्य-भरी हँसी का रहस्य आखिर क्या है ? क्या किसी होरी का गोदान हो गया या हलकू किसान के खेत को नीलगाय चर गए ? लेखक को लगता है कि वह व्यंग्य भरी हँसी उस घटना की ओर संकेत करती है जब माधो अपनी पत्नी के दाह संस्कार के लिए मिले चंदे की शराब पी जाता है। लेखक को लगता है कि प्रेमचंद का जूता इसलिए फटा होगा कि वह महाजन के तकादे से बचने को दूर-दूर तक चक्कर काटते रहे होंगे।


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जूते फटने का रहस्य

लेखक को महसूस होता है कि प्रेमचंद रास्ते में खड़े टीले से बचकर निकलने की बजाय उस पर जूते से ठोकर मारते रहे होंगे । वे समझौता नहीं कर सके । जैसे ‘गोदान’ का होरी ‘नेम-धरम’ को नहीं छोड़ सका, वैसे ही प्रेमचंद भी ‘नेम-धरम’ को नहीं छोड़ सके । यह उनके लिए मुक्ति का साधन थी ।

प्रेमचंद के हाथ की नहीं, पाँव की अँगुली मानो उसी घृणित जगह की ओर संकेत कर रही है जिस पर ठोकर मारकर उनके जूते फटे थे, वे अब भी उन लोगों पर हँस रहे हैं जो अँगुली को ढँकने की चिंता में तलुवे घिसाए जा रहे हैं । किन्तु उन्होंने कम-से-कम अपना पैर बचा लिया।

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