Maithili Sharan Gupt | राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

Maithili Sharan Gupt | मैथिलीशरण गुप्त | कविता संग्रह

Maithili Sharan Gupt , राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी हिंदी के प्रसिद्ध कवि थे। मैथिलीशरण गुप्त (Maithili Sharan Gupt) जी हिंदी साहित्य के इतिहास और खड़ी बोली के महात्वपूर्ण कवियों में से एक थे। इनके द्वारा लिखी गई “भारत भारती” कृति भारत के स्वंत्रता संग्राम के वक़्त बहुत ही प्रभावशाली साबित हुई। इनकी इस कृति से प्रेरित होकर महात्मा गाँधी ने इन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि दी और इनके जयंती के दिन 3 अगस्त को कवि दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। आज हम आपके लिए उनकी कुछ प्रतिनिधि रचनाएँ लेकर आएं है।

किसान

हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है

पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है

हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ

खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ

आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में

अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में

बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा

है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा

देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे

किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे

घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा

घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा

तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं

किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं

बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है

है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है

तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते

यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है

है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है

मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है

शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है

मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएं :-


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भारत माता का मंदिर यह

भारत माता का मंदिर यह

समता का संवाद जहाँ,

सबका शिव कल्याण यहाँ है

पावें सभी प्रसाद यहाँ ।

 

जाति-धर्म या संप्रदाय का,

नहीं भेद-व्यवधान यहाँ,

सबका स्वागत, सबका आदर

सबका सम सम्मान यहाँ ।

राम, रहीम, बुद्ध, ईसा का,

सुलभ एक सा ध्यान यहाँ,

भिन्न-भिन्न भव संस्कृतियों के

गुण गौरव का ज्ञान यहाँ ।

 

नहीं चाहिए बुद्धि बैर की

भला प्रेम का उन्माद यहाँ

सबका शिव कल्याण यहाँ है,

पावें सभी प्रसाद यहाँ ।

 

सब तीर्थों का एक तीर्थ यह

ह्रदय पवित्र बना लें हम

आओ यहाँ अजातशत्रु बन,

सबको मित्र बना लें हम ।

रेखाएँ प्रस्तुत हैं, अपने

मन के चित्र बना लें हम ।

सौ-सौ आदर्शों को लेकर

एक चरित्र बना लें हम ।

 

बैठो माता के आँगन में

नाता भाई-बहन का

समझे उसकी प्रसव वेदना

वही लाल है माई का

एक साथ मिल बाँट लो

अपना हर्ष विषाद यहाँ

सबका शिव कल्याण यहाँ है

पावें सभी प्रसाद यहाँ ।

 

मिला सेव्य का हमें पुज़ारी

सकल काम उस न्यायी का

मुक्ति लाभ कर्तव्य यहाँ है

एक एक अनुयायी का

कोटि-कोटि कंठों से मिलकर

उठे एक जयनाद यहाँ

सबका शिव कल्याण यहाँ है

पावें सभी प्रसाद यहाँ ।

साकेत, नवम सर्ग

दो वंशों में प्रकट करके पावनी लोक-लीला,

सौ पुत्रों से अधिक जिनकी पुत्रियाँ पूतशीला;

त्यागी भी हैं शरण जिनके, जो अनासक्त गेही,

राजा-योगी जय जनक वे पुण्यदेही, विदेही।

 

विफल जीवन व्यर्थ बहा, बहा,

सरस दो पद भी न हुए हहा!

कठिन है कविते, तव-भूमि ही।

पर यहाँ श्रम भी सुख-सा रहा।

 

करुणे, क्यों रोती है? ’उत्तर’ में और अधिक तू रोई–

’मेरी विभूति है जो, उसको ’भव-भूति’ क्यों कहे कोई?’

 

अवध को अपनाकर त्याग से,

वन तपोवन-सा प्रभु ने किया।

भरत ने उनके अनुराग से,

भवन में वन का व्रत ले लिया!

 

स्वामि-सहित सीता ने

नन्दन माना सघन-गहन कानन भी,

वन उर्मिला बधू ने

किया उन्हीं के हितार्थ निज उपवन भी!

 

अपने अतुलित कुल में

प्रकट हुआ था कलंक जो काला,

वह उस कुल-बाला ने

अश्रु-सलिल से समस्त धो डाला।

 

भूल अवधि-सुध प्रिय से

कहती जगती हुई कभी–’आओ!’

किन्तु कभी सोती तो

उठती वह चौंक बोल कर-’जाओ!’

 

मानस-मन्दिर में सती, पति की प्रतिमा थाप,

जलती-सी उस विरह में, बनी आरती आप।

 

आँखों में प्रिय-मूर्ति थी, भूले थे सब भोग,

हुआ योग से भी अधिक उसका विषम-वियोग!

 

आठ पहर चौंसठ घड़ी, स्वामी का ही ध्यान!

छूट गया पीछे स्वयं, उसका आत्मज्ञान!!

 

उस रुदन्ती विरहणी के रुदन-रस के लेप से,

और पाकर ताप उसके प्रिय-विरह-विक्षेप से,

वर्ण-वर्ण सदैव जिनके हों विभूषण कर्ण के,

क्यों न बनते कविजनों के ताम्रपत्र सुवर्ण के?

 

पहले आँखों में थे, मानस में कूद मग्न प्रिय अब थे,

छींटे वही उड़े थे, बड़े बड़े अश्रु वे कब थे?

 

उसे बहुत थी विरह के एक दण्ड की चोट,

धन्य सखी देती रही निज यत्नों की ओट।

मिलाप था दूर अभी धनी का,

विलाप ही था बस का बनी का।

अपूर्व आलाप हुआ वही बड़ा,

यथा विपंची-दिर दार दारा !

“सींचें ही बस मालिनें, कलश लें, कोई न ले कर्तरी,

शाखी फूल फलें यथेच्छ बढ़के, फैलें लताएँ हरी।

क्रीड़ा-कानन-शैल यंत्र जल से संसिक्त होता रहे,

मेरे जीवन का, चलो सखि, वहीं सोता भिगोता बहे।

क्या क्या होगा साथ, मैं क्या बताऊँ?

है ही क्या, हा! आज जो मैं जताऊँ?

तो भी तूली, पुस्तिका और वीणा,

चौथी मैं हूँ, पाँचवीं तू प्रवीणा।

हुआ एक दुःस्वप्न-सा सखि, कैसा उत्पात

जगने पर भी वह बना वैसा ही दिनरात!

 

खान-पान तो ठीक है, पर तदन्तर हाय!

आवश्यक विश्राम जो उसका कौन उपाय?

अरी व्यर्थ है व्यंजनों की बड़ाई,

हटा थाल, तू क्यों इसे आप लाई?

वही पाक है, जो बिना भूख भावे,

बता किन्तु तू ही उसे कौन खावे?

 

बनाती रसोई, सभी को खिलाती,

इसी काम में आज मैं तृप्ति पाती।

रहा किन्तु मेरे लिए एक रोना,

खिलाऊँ किसे मैं अलोना-सलोना?

वन की भेंट मिली है,

एक नई वह जड़ी मुझे जीजी से,

खाने पर सखि, जिसके

गुड़ गोबर-सा लगे स्वयं ही जी से!

रस हैं बहुत परन्तु सखि, विष है विषम प्रयोग,

बिना प्रयोक्ता के हुए, यहाँ भोग भी रोग!

 

लाई है क्षीर क्यों तू? हठ मत कर यों,

मैं पियूँगी न आली,

मैं हूँ क्या हाय! कोई शिशु सफलहठी,

रंक भी राज्यशाली?

माना तू ने मुझे है तरुण विरहिणी;

वीर के साथ व्याहा,

आँखो का नीर ही क्या कम फिर मुझको?

चाहिए और क्या हा!

 

चाहे फटा फटा हो, मेरा अम्बर अशून्य है आली,

आकर किसी अनिल ने भला यहाँ धूलि तो डाली!

 

धूलि-धूसर हैं तो क्या, यों तो मृन्मात्र गात्र भी;

वस्त्र ये वल्कलों से तो हैं सुरम्य, सुपात्र भी!

 

फटते हैं, मैले होते हैं, सभी वस्त्र व्यवहार से;

किन्तु पहनते हैं क्या उनको हम सब इसी विचार से?

 

पिऊँ ला, खाऊँ ला, सखि, पहनलूँ ला, सब करूँ;

जिऊँ मैं जैसे हो, यह अवधि का अर्णव तरूँ।

कहे जो, मानूँ सो, किस विध बता, धीरज धरूँ?

अरी, कैसे भी तो पकड़ प्रिय के वे पद मरूँ।

 

रोती हैं और दूनी निरख कर मुझे

दीन-सी तीन सासें,

होते हैं देवरश्री नत, हत बहनें

छोड़ती हैं उसासें।

आली, तू ही बता दे, इस विजन बिना

मैं कहाँ आज जाऊँ?

दीना, हीना, अधीना ठहर कर जहाँ

शान्ति दूँ और पाऊँ?

मनुष्यता

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸

मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।

हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸

नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।

यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

 

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸

उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।

उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;

तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।

अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।

 

सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;

वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।

विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸

विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?

अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸

वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

 

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸

समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।

परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸

अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।

रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

 

“मनुष्य मात्र बन्धु है” यही बड़ा विवेक है¸

पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।

फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸

परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।

अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

 

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸

विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।

घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸

अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।

तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

 

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में

सन्त जन आपको करो न गर्व चित्त में

अन्त को हैं यहाँ त्रिलोकनाथ साथ में

दयालु दीन बन्धु के बडे विशाल हाथ हैं

अतीव भाग्यहीन हैं अंधेर भाव जो भरे

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

नर हो, न निराश करो मन को

नर हो, न निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो

जग में रह कर कुछ नाम करो

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो

समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो

कुछ तो उपयुक्त करो तन को

नर हो, न निराश करो मन को।

संभलो कि सुयोग न जाय चला

कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला

समझो जग को न निरा सपना

पथ आप प्रशस्त करो अपना

अखिलेश्वर है अवलंबन को

नर हो, न निराश करो मन को।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ

फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ

तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो

उठके अमरत्व विधान करो

दवरूप रहो भव कानन को

नर हो न निराश करो मन को।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे

हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे

मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे

सब जाय अभी पर मान रहे

कुछ हो न तजो निज साधन को

नर हो, न निराश करो मन को।

प्रभु ने तुमको कर दान किए

सब वांछित वस्तु विधान किए

तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो

फिर है यह किसका दोष कहो

समझो न अलभ्य किसी धन को

नर हो, न निराश करो मन को।

किस गौरव के तुम योग्य नहीं

कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं

जन हो तुम भी जगदीश्वर के

सब है जिसके अपने घर के

फिर दुर्लभ क्या उसके जन को

नर हो, न निराश करो मन को।

करके विधि वाद न खेद करो

निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो

बनता बस उद्‌यम ही विधि है

मिलती जिससे सुख की निधि है

समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को

नर हो, न निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो।

मातृ-मूर्ति

जय भारत-भूमि-भवानी!

अमरों ने भी तेरी महिमा बारंबार बखानी।

 

तेरा चन्द्र-वदन वर विकसित शान्ति-सुधा बरसाता है;

मलयानिल-निश्वास निराला नवजीवन सरसाता है।

हदय हरा कर देता है यह अंचल तेरा धानी;

जय जय भारत-भूमि-भवानी!

 

उच्च हदय-हिमगिरि से तेरी गौरव-गंगा बहती है;

और करुण-कालिन्दी हमको प्लावित करती रहती है।

मौन मग्न हो रही देखकर सरस्वती-विधि वाणी;

जय जय भारत-भूमि-भवानी!

 

तेरे चित्र विचित्र विभूषण हैं शूलों के हारों के;

उन्नत-अम्बर-आतपत्र में रत्न जड़े हैं तारों के।

केशों से मोती झरते है या मेघों से पानी ?

जय जय भारत-भूमि-भवानी!

 

वरद-हस्त हरता है तेरे शक्ति-शूल की सब शंका;

रत्नाकर-रसने, चरणों में अब भी पड़ी कनक लंका।

सत्य-सिंह-वाहिनी बनी तू विश्व-पालिनी रानी;

जय जय भारत-भूमि-भवानी!

 

करके माँ, दिग्विजय जिन्होंने विदित विश्वजित याग किया,

फिर तेरा मृत्पात्र मात्र रख सारे धन का त्याग किया।

तेरे तनय हुए हैं ऐसे मानी, दानी, ज्ञानी–

जय जय भारत-भूमि-भवानी!

 

तेरा अतुल अतीत काल है आराधन के योग्य समर्थ;

वर्तमान साधन के हित है और भविष्य सिद्धि के अर्थ।

भुक्ति मुक्ति की युक्ति, हमें तू रख अपना अभिमानी;

जय जय भारत-भूमि-भवानी!

चारुचंद्र की चंचल किरणें

चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,

स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।

पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,

मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥

 

पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,

जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर-वीर निर्भीकमना,

जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?

भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥

 

किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,

राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।

बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,

जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है!

 

मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है,

तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।

वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,

विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥

 

कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;

आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।

बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,

मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-

 

क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;

है स्वच्छन्द-सुमंद गंध वह, निरानंद है कौन दिशा?

बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,

पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!

 

है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,

रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।

और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,

शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।

 

सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,

अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!

अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,

पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥

 

तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,

वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात।

अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की।

किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की!

 

और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,

व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे।

कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;

पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक!

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यशोधरा, सखि वे मुझसे कहकर जाते

सखि, वे मुझसे कहकर जाते,

कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?

 

मुझको बहुत उन्होंने माना

फिर भी क्या पूरा पहचाना?

मैंने मुख्य उसी को जाना

जो वे मन में लाते।

सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

 

स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,

प्रियतम को, प्राणों के पण में,

हमीं भेज देती हैं रण में –

क्षात्र-धर्म के नाते

सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

 

हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा,

किसपर विफल गर्व अब जागा?

जिसने अपनाया था, त्यागा;

रहे स्मरण ही आते!

सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

 

नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,

पर इनसे जो आँसू बहते,

सदय हृदय वे कैसे सहते ?

गये तरस ही खाते!

सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

 

जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,

दुखी न हों इस जन के दुख से,

उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से ?

आज अधिक वे भाते!

सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

 

गये, लौट भी वे आवेंगे,

कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,

रोते प्राण उन्हें पावेंगे,

पर क्या गाते-गाते ?

सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

अर्जुन की प्रतिज्ञा

उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उसका लगा,

मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा ।

मुख-बाल-रवि-सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ,

प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ ?

 

युग-नेत्र उनके जो अभी थे पूर्ण जल की धार-से,

अब रोश के मारे हुए, वे दहकते अंगार-से ।

निश्चय अरुणिमा-मिस अनल की जल उठी वह ज्वाल ही,

तब तो दृगों का जल गया शोकाश्रु जल तत्काल ही ।

 

साक्षी रहे संसार करता हूँ प्रतिज्ञा पार्थ मैं,

पूरा करूँगा कार्य सब कथानुसार यथार्थ मैं ।

जो एक बालक को कपट से मार हँसते हैँ अभी,

वे शत्रु सत्वर शोक-सागर-मग्न दीखेंगे सभी ।

 

अभिमन्यु-धन के निधन से कारण हुआ जो मूल है,

इससे हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है,

उस खल जयद्रथ को जगत में मृत्यु ही अब सार है,

उन्मुक्त बस उसके लिये रौख नरक का द्वार है ।

 

उपयुक्त उस खल को न यद्यपि मृत्यु का भी दंड है,

पर मृत्यु से बढ़कर न जग में दण्ड और प्रचंड है ।

अतएव कल उस नीच को रण-मघ्य जो मारूँ न मैं,

तो सत्य कहता हूँ कभी शस्त्रास्त्र फिर धारूँ न मैं ।

 

अथवा अधिक कहना वृथा है, पार्थ का प्रण है यही,

साक्षी रहे सुन ये बचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही ।

सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथ-वधकरूँ,

तो शपथ करता हूँ स्वयं मैं ही अनल में जल मरूँ ।

मुझे फूल मत मारो

मुझे फूल मत मारो,

मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो।

होकर मधु के मीत मदन, पटु, तुम कटु गरल न गारो,

मुझे विकलता, तुम्हें विफलता, ठहरो, श्रम परिहारो।

नही भोगनी यह मैं कोई, जो तुम जाल पसारो,

बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह–यह हरनेत्र निहारो!

रूप-दर्प कंदर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो,

लो, यह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो!

प्रतिशोध

किसी जन ने किसी से क्लेश पाया

नबी के पास वह अभियोग लाया।

मुझे आज्ञा मिले प्रतिशोध लूँ मैं।

नही निःशक्त वा निर्बोध हूँ मैं।

उन्होंने शांत कर उसको कहा यों

स्वजन मेरे न आतुर हो अहा यों।

चले भी तो कहाँ तुम वैर लेने

स्वयं भी घात पाकर घात देने

क्षमा कर दो उसे मैं तो कहूँगा

तुम्हारे शील का साक्षी रहूंगा

दिखावो बंधु क्रम-विक्रम नया तुम

यहाँ देकर वहाँ पाओ दया तुम।

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