साखियाँ एवं सबद पाठ का सारांश | Class-IX, Chapter-7 (CBSE/NCERT)

साखियाँ एवं सबद – कवि-कबीर| saakhiyaan evan sabad | kabeer |

कबीर की सभी रचनाएँ ‘कबीर – ग्रंथावली’ में संकलित हैं। बीजक, रमैनी और सबद नाम से उनके तीन काव्य-संग्रह उपलब्ध हैं ।

कवि-कबीर जीवन-परिचय

किम्बदन्ती के आधार पर कबीरदास का जन्म सन् 1398 ई. में काशी में हुआ। ऐसा कहा जाता है कि उन्हें एक विधवा ब्राह्मणी ने जन्म दिया और लोक-लाज से बचने के लिए लहरतारा नामक तालाब के किनारे रख दिया । नीरू और नीमा नामक दम्पत्ति ने उनका पालन-पोषण किया । वे अनपढ़ थे । काशी में रामानंद नाम के गुरु से कबीर ने निर्गुण भक्ति की दीक्षा ग्रहण की । साधु-संगति और अपने अनुभव से उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया । कमाल और कमाली नाम की उनकी दो संतानें थीं । वे सन् 1518 ई. के आसपास 120 वर्ष की दीर्घायु में मगहर में स्वर्ग सिधार गए ।

रचनाएँ – कबीर की सभी रचनाएँ ‘कबीर – ग्रंथावली’ में संकलित हैं। बीजक, रमैनी और सबद नाम से उनके तीन काव्य-संग्रह उपलब्ध हैं । सिख धर्म के ‘गुरु-ग्रंथ साहिब’ में भी उनकी अनेक रचनाएँ संग्रहीत हैं । साहित्यिक विशेषताएँ – कबीर एक संत थे । उन्होंने निराकार ईश्वर के प्रति अपनी आस्था प्रकट की । ईश्वर-प्रेम, ज्ञान तथा वैराग्य, गुरुभक्ति, सत्संग, साधु महिमा के साथ आत्मज्ञान और सांसारिक व्यवहार पर, कबीर ने खरी भाषा में अपने विचार प्रकट किए हैं। उनका विश्वास था कि सच्चे प्रेम और ज्ञान से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है । कबीर हर प्रकार के अंधविश्वास और पाखण्ड के विरोधी थे । उन्होंने मूर्ति-पूजा, तिलक, माला आदि बाहरी पाखंडों का डटकर विरोध किया । वे हिन्दू और मुसलमान दोनों में एक ही ईश्वर का निवास मानते थे

भाषा-शैली – कबीर की भाषा अनमेल खिचड़ी है । रमते राम होने के कारण कबीर ने इधर-उधर के लोकप्रचलित शब्दों को अपनी वाणी में मिला लिया । रामचन्द्र शुक्ल ने उसकी भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ कहा है ।

कबीर द्वारा रचित ‘पद’ का सार

मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं ।                                                                                                                                     मुकताफल मुकता चुगैं, अब उड़ि अनत न जाहिं ।।

शब्दार्थ : मानसरोवर = हिमालय पर स्थित एक पवित्र सरोवर, पवित्र मन । सुभर = अच्छी तरह भरा हुआ, शुभ्र, उज्ज्वल । हंसा = हंस, साधक । केलि = क्रीड़ा । मुकताफल क्रीड़ा । मुकताफल = मोती, मुक्ति का आनंद । मुकता = आज़ाद । अनत = अन्यत्र, और कहीं ।
सारांश-
निर्मल हृदय वाले साधकों के लिए कबीर ने ‘हंस’ शब्द का प्रयोग किया है तथा ‘मुक्ताफल चुगने’ का तात्पर्य मुक्ति के आनंद से है ।
कबीर कहते है , जल से परिपूर्ण मानसरोवर में हंस क्रीड़ा कर रहे हैं । वे मुक्त भाव से सरोवर में से मोती चुग रहे हैं । उन्हें इस जल-क्रीड़ा में इतना आनंद आ रहा है कि वे अब यहाँ से उड़कर अन्यत्र जाना नहीं चाहते । आशय है कि ईश्वर-प्रेम से परिपूर्ण मन वाले साधकों को आत्म-लीन होकर मुक्ति का परम सुख प्राप्त होता है । इस परम आनंद को पाकर उन्हें सांसारिक सुखों की इच्छा नहीं रह जाती।

प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोइ ।
प्रेमी कौं प्रेमी मिलै, सब विष अमृत होइ ॥

शब्दार्थ : प्रेमी = प्रभु-भक्त । विष = सांसारिक दुख, दुर्गुण । अमृत । सांसारिक दुख, दुर्गुण । अमृत = परम आनंद ।
सारांश-
इस साखी में कबीर अच्छे संगति के महत्व के बारे में बात करते है। इस साखी में ‘विष’ हमारी वासनाओं, दुर्भावनाओं और पापों का प्रतीक है। ‘अमृत’ भक्ति, मुक्ति, आनंद, पुण्य और सद्भावना का प्रतीक है ।

कबीर कहते हैं कि मैं (भक्त) किसी सच्चे प्रभु-प्रेमी को खोजने निकला, परंतु बहुत प्रयत्न करने पर भी वह मुझे न मिल सका । जब किसी प्रेमी व्यक्ति (भक्त) को सच्चा प्रेमी (सच्चा भक्त) मिल जाता है तो उसके सारे सांसारिक कष्ट, दुर्गुण (विष) नष्ट होकर सुख (अमृत) में बदल जाते हैं

हस्ती चढ़िए ज्ञान कौ, सहज दुलीचा डारि।
स्वान रूप संसार है, भूँकन दे झख मारि ॥

शब्दार्थ : हस्ती = हाथी । सहज = स्वाभाविक, आरामपूर्वक । दुलीचा= कालीन , (यहाँ समाधि) छोटा आसन । डारि = डालकर | स्वान = कुत्ता। झक मारना = मजबूर होना, वक्त बरबाद करना ।

सारांश-
इस साखी में लोकनिंदा की प्रवृत्ति पर गहरी चोट करते हुए कबीर ने संसार की निन्दा या बुराई की परवाह किए बिना प्रभु-भक्ति करने की प्रेरणा दी है ।
कबीर उपासकों को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे उपासको ! तुम ज्ञानरूपी हाथी पर आराम से समाधिरूपी आसन बिछाकर निश्चितता से चलते रहे, संसार तो कुत्ते के समान है, जो हाथी को चलते देखकर बेकार ही भौंकता रहता है । प्रभु-साधक को दुनिया की निंदा की परवाह किये बिना साधना-पथ पर बढ़ते जाना चाहिए ।

पखापखी के कारनै, सब जग रहा भुलान ।
निरपख होइ के हरि भजै, सोई संत सुजान ।।

शब्दार्थ : पखापखी = पक्ष-विपक्ष । कारनै = कारण से । निरपख = निष्पक्ष, विवाद से दूर । सुजान = ज्ञानी।

सारांश-
कबीर ने इस साखी में एक संत के व्यवहार के बारे में बताते हुए कहा है कि एक संत को तर्क-वितर्क के झगड़ों से दूर रहन चाहिए।
कबीर के अनुसार आज सारा संसार पक्ष-विपक्ष की उलझन में पड़ गया है। तर्क-वितर्क के चक्कर में लोग भगवान को भूल गए हैं । सच्चा संत वही है जो निष्पक्ष भाव से ईश्वर की भक्ति करता है ।

हिंदू मुआ राम कहि, मुसलमान खुदाइ ।
कहै कबीर सो जीवता, जो दुहुँ के निकट न जाइ ॥

शब्दार्थ : मूआ= मरा, नकारा । खुदाइ = खुदा को । जीवता =जीवित रहता है । दुहुँ = दोनों

सारांश-
इस साखी में कबीर मानवता को धर्म से ऊपर स्थापित करते हुए कबीर कहते हैं हिंदू जन ‘राम’ का नाम ले-लेकर मर गए और मुसलमान खुदा कहते-कहते मर गए पर दोनों ईश्वर को न पा सके अर्थात् आपसी भेदभाव में पड़कर कट्टर हो गए। कबीर कहते हैं-वास्तव में वही व्यक्ति जीवित कहलाने का अधिकारी है, जो हिंदू-मुसलिम और राम-खुदा दोनों से दूर रहता है । आशय यह है कि ‘ईश्वर’ राम और खुदा दोनों से अलग है और ‘मानवता’ हिंदू और मुसलमान के भेदों से ऊपर है । कबीर के अनुसार, सांप्रदायिक भेदभाव और कट्टरता से दूर रहने वाला मनुष्य ही जीवित है ।

काबा फिरि कासी भया, रामहिं भया रहीम ।
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम ।।

शब्दार्थ : काबा = मुसलमानों का पवित्र तीर्थ । कासी = काशी । भया =हो गया । मोट = मोटा । चून = आटा । जीम = भोजन करना ।

सारांश-
इस साखी में कबीर ने धर्मों के मतभेद को ‘मोटा चून’ कहा गया है और धार्मिक सहिष्णुता को ‘मैदा’ कहा गया है ।
इस साखी में सांप्रदायिक मत-भेद को दूर करने की बात करते हुए कहते है जब कबीर धार्मिक भेदभाव से ऊपर उठकर निष्पक्ष हो गए तो उनके लिए मुसलमानों का पवित्र तीर्थ काबा काशी के समान और राम का नाम रहीम के समान पवित्र हो गया । जिसे वे मोटा आटा समझकर अखाद्य समझते थे, अब वही उनके लिए बारीक मैदा हो गया और वे उसे बैठकर आराम से खा रहे हैं। आशय यह है कि धार्मिक भेद-भाव के नष्ट होने पर उनके मन में हिन्दू-मुसलमान और राम-रहीम के नाम पर बसी सांप्रदायिकता दूर हो गई ।

ऊँचे कुल का जनमिया, जे करनी ऊँच न होइ ।
सुबरन कलस सुरा भरा, साधू निंदा सोइ ।।

शब्दार्थ : जनमिया = जन्म लेने वाला । करनी = काम, क्रिया-कलाप। सुबरन = सोना (धातु)। कलस =घड़ा । सुरा = शराब |

सारांश-
इस साखी में कबीर ने कर्म की श्रेष्ठता को कुल की श्रेष्ठता से ऊपर रखा है। वे मनुष्य की श्रेष्ठता उसके श्रेष्ठ कर्मों के कारण मानते हैं । कबीर के अनुसार यदि कोई मनुष्य श्रेष्ठ कुल में जन्मा है, किन्तु उसके कर्म श्रेष्ठ नहीं हैं, तो क्या लाभ ? सोने का घड़ा अगर शराब से भरा हो, तो साधु लोग ऐसे बर्तन की निंदा ही करते हैं । आशय है कि मनुष्य कर्म से महान बनता है, जन्म से नहीं ।

सबद (पद)

मोकों कहाँ ढूँढ़े बंदे, मैं तो तेरे पास में ।
ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में ।
ना तो कौने क्रिया-कर्म में, नहीं योग बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में ।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब स्वाँसों की स्वाँस में ।।

शब्दार्थ : मोकों= मुझे । बंदे = मनुष्य । देवल= मंदिर | काबा = मुसलमानों का तीर्थ-स्थान । कौने = किसी । क्रिया-कर्म= सांसारिक आडंबर । योग = योग साधना । बैराग = वैराग्य । तुरतै = शीघ्र ही । तालास = खोज ।

सारांश-
इस सबद में कबीर अपने शब्दों से धर्म और सांसारिक आडबंरों का खंडन करते है। कबीर के अनुसार मनुष्य ईश्वर को इधर-उधर व्यर्थ ही ढूँढ़ता है, वह तो मनुष्य के अंदर ही विराजमान है। ईश्वर न तो मंदिर, मस्जिद, काबा, कैलाश में और न ही किसी सांसारिक आडंबर, योग साधना या सन्यास ग्रहण करने पर मिलता है। सच्चे अर्थ में ढूँढ़ने वाले को ईश्वर तुरन्त उसके हृदय में ही मिल जाता है।

संतौं भाई आई ग्याँन की आँधी रे ।
भ्रम की टाटी सबै उड़ाँनी, माया रहै न बाँधी ।।
हिति चित्त की द्वै भूँनी गिराँनी, मोह बलिंडा तूटा ।
त्रिस्नाँ छाँनि परि घर ऊपरि, कुबधि का भाँडाँ फूटा ।।
जोग जुगति करि संतौं बाँधी, निरचू चुवै न पाँणी ।
कूड़ कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जाँणी ।।
आँधी पीछै जो जल बूठा, प्रेम हरि जन भींनाँ ।
कहै कबीर भाँन के प्रगटे उदित भया तम खीनाँ ।।

शब्दार्थ : टाटी = टटिया या बाँस की फट्टियों से बना हुआ परदा । माया = अज्ञान का बंधन । हिति= स्वार्थ । चित्त = मन । थूँनी= खंभा, स्तंभ, टेक | बलिंड = छत पर बाँधी जाने वाली बल्ली । तूटा = टूटा । त्रिस्नाँ = तृष्णा, प्यास, चाह । छाँनि = छप्पर । घर = मकान । कुबधि = कुबुद्धि, बुरे विचार । भाँडाँ = बर्तन । जोग जुगति = योग साधना की युक्तियाँ । निरचू = थोड़ा भी । चुवै = रिसता है, टपकता है । कूड़ कपट = कपटरूपी कूड़ा | काया = शरीर । बूठा = बरसा । भींनाँ = भीगा । भाँन = सूरज । उदित भया = उगने पर, प्रकट होने पर । तम खीनाँ = अँधेरा नष्ट हो गया ।

सारांश-

इस पद्यांश कबीर उस आध्यात्मिक ज्ञान की बात कर रहे हैं, जो कि ईश्वर से प्रेम होने के बाद प्राप्त होता है । कबीर का कहना है कि आत्मज्ञान की प्राप्ति होने पर मनुष्य का हृदय निर्मल हो जाता है। उसके हृदय में बसे भ्रम, माया, स्वार्थ, मोह, तृष्णा, कुविचार आदि दुर्गुण नष्ट हो जाते हैं और उसके मन में ईश्वर-प्रेम व्याप्त हो जाता है । ज्ञान की आँधी के बाद बरसने वाले पानी का आशय है- अज्ञान के नष्ट होने के बाद मन में उपजे ईश्वर-प्रेम के आनन्द का अनुभव। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर अंधकार मिट जाता है, उसी प्रकार हृदय में ज्ञान का प्रकाश होने से अज्ञानरूपी अंधकार दूर हो जाता है।

 

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