Bhartendu Harishchandra | भारतेंदु हरिशचंद्र

Bhartendu Harishchandra | भारतेंदु हरिशचंद्र | कविता संग्रह

Bhartendu Harishchandra | भारतेंदु हरिशचंद्र आधुनिक हिंदी साहित्य और साथ ही हिंदी साहित्य के जनक के नाम से जाने जाते है। आधुनिक भारत के सबसे प्रभावशाली हिंदी लेखको में से वे एक है। वे एक सम्मानित कवी भी है। वे बहुत से नाटको के लेखक भी रह चुके थे। अपने कार्यो में उन्होंने सामाजिक राय के लिए रिपोर्ट, पब्लिकेशन, ट्रांसलेशन और मीडिया जैसे सभी उपकरणों का उपयोग किया था। वे अपने उपनाम “रसा”, से कोई भी लेख लिखते थे, हरिशचंद्र ने अपने लेखो में लोगो की व्यथा, देश की कविता, निर्भरता, अमानवीय शोषण, मध्यम वर्गीय लोगो की अशांति और देश के विकास में बाधा को दर्शाया था। वे एक प्रभावशाली हिन्दू “परंपरावादी” थे जिन्होंने वैष्णव भक्ति के उपयोग से हिन्दू धर्म की व्याख्या की थी। यहां पर भारतेंदु जी के कुछ रचनाओं को संग्रह बनाया गया है, इन रचनाओं को पढकर आप भारतेंदु जी को और करीब से जान पायेगें।

रोअहू सब मिलिकै

रोअहू सब मिलिकै आवहु भारत भाई।

हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥ धु्रव॥

सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो।

सबके पहिले जेहि सभ्य विधाता कीनो॥

सबके पहिले जो रूप रंग रस भीनो।

सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनो॥

अब सबके पीछे सोई परत लखाई।

हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥

जहँ भए शाक्य हरिचंदरु नहुष ययाती।

जहँ राम युधिष्ठिर बासुदेव सर्याती॥

जहँ भीम करन अर्जुन की छटा दिखाती।

तहँ रही मूढ़ता कलह अविद्या राती॥

अब जहँ देखहु दुःखहिं दुःख दिखाई।

हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥

लरि बैदिक जैन डुबाई पुस्तक सारी।

करि कलह बुलाई जवनसैन पुनि भारी॥

तिन नासी बुधि बल विद्या धन बहु बारी।

छाई अब आलस कुमति कलह अंधियारी॥

भए अंध पंगु सेब दीन हीन बिलखाई।

हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥

अँगरेराज सुख साज सजे सब भारी।

पै धन बिदेश चलि जात इहै अति ख़्वारी॥

ताहू पै महँगी काल रोग बिस्तारी।

दिन दिन दूने दुःख ईस देत हा हा री॥

सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई।

हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई॥

चूरन का लटका

चूरन अलमबेद का भारी, जिसको खाते कृष्ण मुरारी।।

मेरा पाचक है पचलोना, जिसको खाता श्याम सलोना।।

चूरन बना मसालेदार, जिसमें खट्टे की बहार।।

मेरा चूरन जो कोई खाए, मुझको छोड़ कहीं नहि जाए।।

हिंदू चूरन इसका नाम, विलायत पूरन इसका काम।।

चूरन जब से हिंद में आया, इसका धन-बल सभी घटाया।।

चूरन ऐसा हट्टा-कट्टा, कीन्हा दाँत सभी का खट्टा।।

चूरन चला डाल की मंडी, इसको खाएँगी सब रंडी।।

चूरन अमले सब जो खावैं, दूनी रिश्वत तुरत पचावैं।।

चूरन नाटकवाले खाते, उसकी नकल पचाकर लाते।।

चूरन सभी महाजन खाते, जिससे जमा हजम कर जाते।।

चूरन खाते लाला लोग, जिनको अकिल अजीरन रोग।।

चूरन खाएँ एडिटर जात, जिनके पेट पचै नहीं बात।।

चूरन साहेब लोग जो खाता, सारा हिंद हजम कर जाता।।

चूरन पुलिसवाले खाते, सब कानून हजम कर जाते।।

मुकरियाँ

सीटी देकर पास बुलावै।

रुपया ले तो निकट बिठावै॥

लै भागै मोहि खेलहिं खेल।

क्यों सखि साजन, नहिं सखि रेल॥

सतएँ-अठएँ मा घर आवै।

तरह-तरह की बात सुनावै॥

घर बैठा ही जोड़ै तार।

क्यों सखि साजन, नहीं अखबार॥

कहाँ करुणानिधि केशव सोए

कहाँ करुणानिधि केशव सोये।

जागत नेक न जदपि बहु बिधि भारतवासी रोए।।

इक दिन वह हो जब तुम छिन नहिं भारतहित बिसराए।

इत के पशु गज को आरत लखि आतुर प्यादे धाए।।

इक इक दीन हीन नर के हित तुम दुख सुनि अकुलाई।

अपनी संपति जानि इनहिं तुम रछ्यौ तुरतहि धाई।।

प्रलयकाल सम जौन सुदरसन असुर प्रानसंहार।

ताकी धार भई अब कुण्ठित हमरी बेर मुरारी।।

दुष्ट जवन बरबर तुव संतति घास साग सम काटैं।

एक-एक दिन सहस-सहस नर-सीस काटि भुव पाटैं।।

ह्वै अनाथ आरज-कुल विधवा बिलपहिं दीन दुखारी।

बल करि दासी तिनहीं वनावहिं तुम नहीं लजत खरारी।।

कहाँ गए सब शास्त्र कही जिन भारी महिमा गाई।

भक्तबछल करुणानिधि तुम कहँ गायो बहुत बनाई।।

हाय सुनत नहिं निठुर भए क्यों परम दयाल कहाई।

सब बिधि बूड़त लखि निज देसहि लेहु न अबहुँ बचाई।।

सखी हम काह करैं कित जायं

सखी हम काह करैं कित जायं

बिनु देखे वह मोहिनी मूरति नैना नाहिं अघायँ

बैठत उठत सयन सोवत निस चलत फिरत सब ठौर

नैनन तें वह रूप रसीलो टरत न इक पल और

सुमिरन वही ध्यान उनको हि मुख में उनको नाम

दूजी और नाहिं गति मेरी बिनु मोहन घनश्याम

सब ब्रज बरजौ परिजन खीझौ हमरे तो अति प्रान

हरीचन्द हम मगन प्रेम-रस सूझत नाहिं न आन

होली

कैसी होरी खिलाई।

आग तन-मन में लगाई॥

पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।

पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥

तबौ नहिं हबस बुझाई।

भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।

टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥

तुम्हें कैसर दोहाई।

कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।

आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥

तुन्हें कछु लाज न आई।

भारतेंदु हरिशचंद्र की रचनाएं :-


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ग़ज़ल- बाल बिखेरे आज परी तुर्बत पर मेरे आएगी

बाल बिखेरे आज परी तुर्बत पर मेरे आएगी

मौत भी मेरी एक तमाशा आलम को दिखलाएगी

महव-ए-अदा हो जाऊँगा गर वस्ल में वो शरमाएगी

बार-ए-ख़ुदाया दिल की हसरत कैसे फिर बर आएगी

काहीदा ऐसा हूँ मैं भी ढूँडा करे न पाएगी

मेरी ख़ातिर मौत भी मेरी बरसों सर टकराएगी

इश्क़-ए-बुताँ में जब दिल उलझा दीन कहाँ इस्लाम कहाँ

वाइज़ काली ज़ुल्फ़ की उल्फ़त सब को राम बनाएगी

चंगा होगा जब न मरीज़-ए-काकुल-ए-शब-गूँ हज़रत से

आप की उल्फ़त ईसा की अब अज़्मत आज मिटाएगी

बहर-अयादत भी जो न आएँगे न हमारे बालीं पर

बरसों मेरे दिल की हसरत सर पर ख़ाक उड़ाएगी

देखूँगा मेहराब-ए-हरम याद आएगी अबरू-ए-सनम

मेरे जाने से मस्जिद भी बुत-ख़ाना बन जाएगी

ग़ाफ़िल इतना हुस्न पे ग़र्रा ध्यान किधर है तौबा कर

आख़िर इक दिन सूरत ये सब मिट्टी में मिल जाएगी

आरिफ़ जो हैं उन के हैं बस रंज ओ राहत एक ‘रसा’

जैसे वो गुज़री है ये भी किसी तरह निभ जाएगी

ग़ज़ल- बुत-ए-काफ़िर जो तू मुझ से ख़फ़ा है

बुत-ए-काफ़िर जो तू मुझ से ख़फ़ा हो

नहीं कुछ ख़ौफ़ मेरा भी ख़ुदा है

ये दर-पर्दा सितारों की सदा है

गली-कूचा में गर कहिए बजा है

रक़ीबों में वो होंगे सुर्ख़-रू आज

हमारे क़त्ल का बेड़ा लिया है

यही है तार उस मुतरिब का हर रोज़

नया इक राग ला कर छेड़ता है

शुनीदा कै बवद मानिंद-ए-दीद

तुझे देखा है हूरों को सुना है

पहुँचता हूँ जो मैं हर रोज़ जा कर

तो कहते हैं ग़ज़ब तू भी ‘रसा’ है

ग़ज़ल- फिर मुझे लिखना जो वस्फ़-ए-रू-ए-जानाँ हो गया

फिर मुझे लिखना जो वस्फ़-ए-रू-ए-जानाँ हो गया

वाजिब इस जा पर क़लम को सर झुकाना हो गया

सर-कशी इतनी नहीं ज़ालिम है ओ ज़ुल्फ़-ए-सियह

बस कि तारीक अपनी आँखों में ज़माना हो गया

ध्यान आया जिस घड़ी उस के दहान-ए-तंग का

हो गया दम बंद मुश्किल लब हिलाना हो गया

ऐ अज़ल जल्दी रिहाई दे न बस ताख़ीर कर

ख़ाना-ए-तन भी मुझे अब क़ैद-ख़ाना हो गया

आज तक आईना-वश हैरान है इस फ़िक्र में

कब यहाँ आया सिकंदर कब रवाना हो गया

दौलत-ए-दुनिया न काम आएगी कुछ भी बा’द-ए-मर्ग

है ज़मीं में ख़ाक क़ारूँ का ख़ज़ाना हो गया

बात करने में जो लब उस के हुए ज़ेर-ओ-ज़बर

एक साअत में तह-ओ-बाला ज़माना हो गया

देख ली रफ़्तार उस गुल की चमन में क्या सबा

सर्व को मुश्किल क़दम आगे बढ़ाना हो गया

जान दी आख़िर क़फ़स में अंदलीब-ए-ज़ार ने

मुज़्दा है सय्याद वीराँ आशियाना हो गया

ज़िंदा कर देता है इक दम में ये ईसा-ए-नफ़स

खेल इस को गोया मुर्दे को जिलाना हो गया

तौसन-ए-उम्र-ए-रवाँ दम भर नहीं रुकता ‘रसा’

हर नफ़स गोया उसी का ताज़ियाना हो गया

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