मोचीराम कविता | लेखक-सुदामा पाण्डे धूमिल (Mochiram poem Author-Sudama Pandey Dhumil)

मोचीराम कविता | लेखक-सुदामा पाण्डे धूमिल (Mochiram poem Author-Sudama Pandey Dhumil)

आदमी की कीमत हर दृष्टि से अलग-अलग होती है भले ही कोई अपने को कितना ही बड़ा आदमी ही क्यों न समझे- सुदामा पाण्डे धूमिल

सुदामा पाण्डे धूमिल

धूमिल (1936-1975 ई.)धूमिल का वास्तविक नाम सुदामा पाण्डे धूमिल है। मोचीराम इनकी प्रसिद्ध कविता है जिसमें एक मोची कहता है-बाबूजी हर आदमी मेरे लिए एक जोड़ी जूता है जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है इस कविता मे धूमिल ने मोचीराम के माध्यम से इस सत्य का उद्घाटन किया है कि आदमी की कीमत हर दृष्टि से अलग-अलग होती है भले ही कोई अपने को कितना ही बड़ा आदमी ही क्यों न समझे परन्तु मोची की दृष्टि में सब बराबर है।


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मोचीराम कविता

रॉपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
क्षण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाये हुये स्वर में
वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ मेरी निगाह में
न कोई छोटा है न कोई बड़ा है
मेरे लिये, हर आदमी एक जोडी जूता है
जो मेरे सामने मरम्मत के लिये खड़ा है।

और असल बात तो यह है
कि वह चाहे जो है
जैसा है, जहाँ कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है
फिर भी मुझे ख्याल है रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की

चोट छाती पर हथौड़े की तरह सहता है।


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यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं
और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’
बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
अपनी-अपनी शैली है
मसलन एक जूता है
जूता क्या है-चकतियों की थैली है
इसे एक आदमी पहनता है
जिसे चेचक ने चुग लिया है
उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
जैसे ‘टेलीफून ‘के खम्भे पर
कोई पतंग फँसी है
और खडखडा रही है।

बाबूजी इस पर पैसा क्यों फूंकते हो?
मैं कहना चाहता हूँ
मगर मेरी आवाज लड़खड़ा रही है
मैं महसूस करता हूँ भीतर से
एक आवाज आती है.
कैसे आदमी हो अपनी जाति पर थूकते हो।

आप यकीन करें, उस समय
मैं चकतियों की जगह आँखें टंकता हूँ
और पेशे में पड़े हुये आदमी को
बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।

एक जूता और है जिससे पैर को
नांघकर एक आदमी निकलता है
सैर को
न वह अक्लमन्द है
न वक्त का पाबन्द है
उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे जाना कहीं नहीं है
मगर चेहरे पर
बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
‘इशे बॉद्धो, उशे काट्टो, हियाँ ठोक्को,

वहाँ पीट्टो घिस्सा दो, अइशा चमकाओ, जूत्ते को ऐना बनाओ
ओफ्फ! बड़ी गर्मी है’
रुमाल से हवा करता है,
मौसम के नाम पर बिसूरता है
सड़क पर आतियों-जातियों को
बानर की तरह घूरता है
गरज यह कि घण्टे भर खटवाता है
मगर नामा देते वक्त
साफ नट जाता है
शरीफों को लूटते हो वह गुर्राता है
और कुछ सिक्के फेंककर
आगे बढ़ जाता है
अचानक चिहुककर सड़क से उछलता है
और पटरी पर चढ़ जाता है
चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील
दबी रह जाती है
जो मौका पाकर उभरती है
और अँगुली में गड़ती है।

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मगर इसका मतलब यह नहीं है
कि मुझे कोई गलतफहमी है
मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते
और पेशे के बीच
कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टांके पड़ते हैं
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट
छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है
और बाबूजी! असल बात तो यह है कि जिन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोजी कमाने में
कोई फर्क नहीं है
और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी
अपने पेशे से छूटकर
भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है
सभी लोगों की तरह
भाषा उसे काटती है।
मौसम सताता है
अब आप इस बसन्त को ही लो,
यह दिन को ताँत की तरह तानता है
पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा रों सुखतल्ले
धूप में, सीझने के लिये लटकाता है
सच कहता हूं-उस समय
रांपी की मूठ को हाथ में सँभालना
मुश्किल हो जाता है
आँख कहीं जाती है
हाथ कहीं जाता है
मन किसी झुंझलाये हुये बच्चेसा
काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है लगता है कि चमड़े की शराफत के पीछे
कोई जंगल है जो आदमी पर
पेड़ से वार करता है
और यह चौकने की नहीं, सोचने की बात है।
मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमजा त मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं, शायर है
असल में वह एक दिलचस्प गलतफहमी का
शिकार है


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जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है
और भाषा पर
आदमी का नहीं, किसी जाति का अधिकार है
जबकि असलियत है यह है कि आग
सबको जलाती है सच्चाई
सबसे होकर गुजरती है
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख
और ‘एक समझदार चुप’
दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में,’ चुप’ और ‘चीख’
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फर्ज अदा करते हैं।

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