नागार्जुन की कविता ‘यह दंतुरित मुसकान’ और ‘फसल’ कविता का सार तथा मूल पाठ, सप्रसंग व्याख्या और कवि परिचय| Class-X, Chapter-5 (CBSE/NCERT)
नागार्जुन की कविता ‘यह दंतुरित मुसकान’ और ‘फसल’ कविता का सार तथा मूल पाठ, सप्रसंग व्याख्या और कवि परिचय| Class-X, Chapter-5 (CBSE/NCERT)
कवि नागार्जुन का जीवन परिचय
जीवन परिचय
साहित्य जगत में कवि नागार्जुन ‘बाबा’ नाम से प्रख्यात हिन्दी और मैथिली के सम्मान्य कवि और लेखक नागार्जुन का जन्म सन् 1911 में गोकुलनाथ मिश्र के यहाँ बिहार के दरभंगा जिले के तरौनी गाँव में हुआ था। इनके बचपन का नाम वैद्यनाथ मिश्र था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत पाठशाला में हुई। इन्होंने वाराणसी और कोलकाता में उच्च शिक्षा ग्रहण किया। 1936 ई. में ये श्रीलंका गए और वहाँ बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। इन्होंने स्वाध्याय से संस्कृत, पाली, मगधी, मराठी और बंगाली आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। सन् 1998 में इनका देहावसान हो गया।
साहित्यिक परिचय
‘बाबा’ नागार्जुन फक्कड़ और घुमक्कड़ स्वभाव के साहित्यकार थे। इन्होंने प्रगतिशील और जनवादी आन्दोलनों से प्रभावित साहित्य की रचना की। इनके साहित्य में देश के आमजन, किसानों और मजदूरों के जीवन का चित्रण हुआ है। इन्होंने गीत, छन्दबद्ध रचनाएँ तथा मुक्त-छन्द रचनाएँ लिखी हैं।
नागार्जुन की रचनाएँ
नागार्जुन की प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं-युगधारा, प्यासी पथराई आँखें, सतरंगे पंखों वाली हजार-हजार बाँहों वाली, तुमने कहा था, पुरानी जूतियों का कोरस, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, ऐसे भी हम क्या, ऐसे भी तुम क्या, मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा, भस्मांकुर आदि।
‘यह दंतुरित मुसकान’ और ‘फसल’ कविता का सार
कविता ‘यह दंतुरित मुसकान’
छायावादेतर दौर के लोकप्रिय जनकवि नागार्जुन की कविता ‘यह दंतुरित मुसकान’ में शिशु की मनोहर मुसकान का चित्रण है । कवि ने इसको प्रतीकों तथा बिंबों के द्वारा व्यक्त किया है । इस आकर्षक मुसकान में जो सौन्दर्य है वह कठोर मन को भी पिघला देता है। शिशु की बाँकी निगाह से मिलकर इस मुसकान की मोहकता और ज्यादा बढ़ जाती है ।
कविता ‘फसल’
‘फसल’ कविता में नागार्जुन ने बताया है कि फसल क्या है तथा उसे उगाने में किन-किन तत्वों का योगदान होता है । कविता का संदेश है कि प्रकृति और मनुष्य के सहयोग से ही सृजन संभव है । यह कविता उपभोक्तावाद से कृषि-संस्कृति की ओर चलने की प्रेरणा देती है ।
यह दंतुरित मुसकान कविता की व्याख्या
(1) तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
मृतक में भी डाल देगी जान
धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारा ही प्राण,
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल ?
सन्दर्भ तथा प्रसंग
प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज -2’ में संकलित कवि नागार्जुन की रचना ‘यह दंतुरित मुसकान’ से लिया गया है। कवि ने यहाँ अपने शिशु पुत्र की मनोहर मुसकान का चित्रण किया है।
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान पद की व्याख्या
कवि अपने शिशु पुत्र की नए-नए दाँतों वाली मुसकान देखकर भाव-विभोर है। वह कहता है- हे शिशु ! तुम्हारी यह नए दाँतों वाली मुसकान मुर्दों में भी जान डाल सकती है ।
तुम्हारे धूल से सने अंग देखकर लगता है मानो कमल तालाब को छोड़कर मेरी कुटिया में खिल गया है। तुम्हारा स्पर्श इतना कोमल है कि कठोर पत्थरों को भी पिघलाकर पानी बना सकता है ।
तुम्हें छूते ही मुझे शेफाली के फूलों जैसी कोमलता का अनुभव हो रहा है। मैं तो बाँस और बबूल के समान नीरस और कँटीला व्यक्ति था । तुम्हारे जादू भरे स्पर्श ने मुझे फूलों जैसी मृदुता और सरसता से भर दिया है ।
पद की विशेष
1. छोटे बालक की मुसकान से सभी प्रसन्न हो जाते हैं, यह बताया है।
2. कवि अपने पुत्र की दंतुरित मुसकान को नया जीवन देने वाली बताता है।
3. शिशु की मुसकान को कवि ने प्रतीकों-बिंबों के द्वारा व्यक्त किया है।
4. अलंकारों-मुहावरों के प्रयोग से भाषा प्रभावशाली हो गई है।
(2) तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
देखते ही रहोगे अनिमेष !
थक गये हो ?
आँख लूँ मैं फेर ?
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार ?
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज
मैं न सकता देख
मैं न पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
सन्दर्भ तथा प्रसंग
प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज -2’ में संकलित, कवि नागार्जुन की रचना ‘यह दंतुरित मुसकान’ से लिया गया है। यहाँ कवि अपने छोटे बालक से बात करके प्रसन्न हो रहा है।
तुम मुझे पाए नहीं पहचान? पद की व्याख्या
शिशु कवि को एकटक देख रहा है। वह उसे पहचान नहीं पा रहा है। कवि सोच रहा है कि वह उसे अपलक देखने से थक गया होगा। शिशु ने उसे पहली बार देखा है, वह कवि से परिचित नहीं है।
शिशु की माँ ने ही उसका शिशु से परिचय कराया है । यदि माँ माध्यम न बनी होती तो कवि शिशु की इस दंतुरित, भोली और मनमोहक मुसकान से वंचित रह जाता ।
पद की विशेष
1. माँ के माध्यम से ही पिता का परिचय शिशु को मिला है। यह तथ्य इस अंश में दृष्टव्य है।
2. किसी अजनवी को छोटा बच्चा एकटक देखकर मुँह फेर लेता है, यह बताया गया है।
3. कवि ने अपनी कविता में शिशु-माँ और स्वयं का शब्द-चित्र ही प्रस्तुत कर दिया है।
4. वात्सल्य रस से काव्यांश परिपूर्ण है।
(3) धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य !
धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य !
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य !
इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि आँखें चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान
मुझे लगती बड़ी ही छविमान !
सन्दर्भ तथा प्रसंग
प्रस्तुत पद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज -2’ में संकलित, कवि नागार्जुन की कविता ‘यह दंतुरित मुसकान’ से लिया गया है। कवि यहाँ माँ और शिशु दोनों को को ही धन्य मान रहा है।
धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य ! पद की व्याख्या
कवि शिशु को संबोधित करता हुआ कह रहा है कि शिशु और उसकी माँ दोनों ही धन्य हैं।
शिशु अपनी बाल-चेष्टाओं और मोहक छवि के कारण धन्य है और माँ उसको जन्म देने और वात्सल्यपूर्ण लालन-पालन करने के कारण।
कवि स्वयं को पराया और एक मेहमान जैसा अनुभव करता है। बच्चा उसे कैसे पहचान पाता, क्योंकि वह उसके संपर्क में ही नहीं रहा । शिशु ने तो आज तक मधुर वात्सल्य बरसाने वाली माँ को ही जाना है।
कवि शिशु से कहता है- तुम मुझे कनखियों से देखकर मुँह फेर लेते हो किन्तु जब मेरी और तुम्हारी आँखें परस्पर मिलती हैं तो मुझे तुम्हारी यह नन्हें दाँतों वाली मुसकान बड़ी सुन्दर लगती है ।
पद की विशेष
1. शिशु मनोविज्ञान का कवि ने वर्णन किया है।
2. कवि अक्सर घर से बाहर रहता है, माँ द्वारा ही शिशु का लालन-पालन करने से उसने दोनों को धन्य कहा है।
3. तत्सम तद्भव शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग हुआ है।
फसल कविता की व्याख्या
(1) एक के नहीं,
एक के नहीं,
दो के नहीं,
ढेर सारी नदियों के पानी का जादूः
एक के नहीं,
दो के नहीं,
लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमाः
एक के नहीं,
दो के नहीं,
हजार-हजार खेतों की मिट्टी का गुण धर्मः
सन्दर्भ तथा प्रसंग
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज -2’ में संकलित, कवि नागार्जुन की रचना ‘फसल’ से लिया गया है। कवि यहाँ कह रहा है कि फसल को पैदा करने में करोड़ों-करोड़ नर-नारियों की मेहनत लगती है।
एक के नहीं, पद की व्याख्या
कवि ने इस अंश में फसल के भौतिक रूप के साथ ही उसके पीछे निहित संदेश को भी प्रकाशित किया है।
कवि कहता है कि खेतों में लहलहाती ये फसलें किन्हीं खास नदियों के जल से नहीं बल्कि सैकड़ों नदियों के जल से सिंचित होकर जनमती और बढ़ती हैं। इनको तैयार करने में लाखों-करोड़ों किसान और मजदूर परिश्रम करते हैं और हजारों खेतों की विभिन्न विशेषताओं वाली मिट्टियाँ इनको जीवन दान देती हैं।
इन फसलों को प्राप्त करने में पूरे देश की भूमि और करोड़ों देशवासियों का योगदान निहित है ।
पद की विशेष
1. कवि ने फसल को नदियों के जल का जादू तथा हाथों के स्पर्श की गरिमा बताया है।
2. अपनी बात पर बल देने के लिए कवि ने शब्दों का बार-बार प्रयोग किया है।
3. प्रवाहमयी तथा सरल खड़ी हिन्दी भाषा का प्रयोग हुआ है।
(2) फसल क्या है ?
फसल क्या है ?
और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू है वह
हाथों के स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का !
सन्दर्भ तथा प्रसंग
प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज -2’ में संकलित कवि नागार्जुन की कविता फसल से अवतरित है। कवि इस पद्यांश में फसल क्या और किसका परिणाम है, इसका उत्तर दे रहा है।
फसल क्या है ? पद की व्याख्या
कवि के अनुसार फसल नदियों के जादू भरे प्रभाव वाले पानी से सींची गई, मनुष्य के परिश्रम की महिमा बताने वाली, नाना प्रकार के रंग, रूप, गुणों वाली मिट्टी में उगाई गई वनस्पति है।
इसने सूरज की धूप और बहती हुई वायु से अपनी जीवन सामग्री संचित की है। फसल प्राकृतिक तत्वों और मानव श्रम के संतुलित संयोग का परिणाम है ।
पद की विशेष
1. कवि फसल को पानी, खनिज, सूरज, हवा और मानवीय श्रम को मिला-जुला योगदान मानता है।
2. सरल साहित्यिक प्रवाहमयी खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग हुआ है।
3. कवि ने प्रकृति और मनुष्य के सहयोगात्मक भाव