डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की प्रसिद्ध कविता “वरदान मांगूंगा नहीं”
आज हम पढ़ रहे है डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की बहुत ही प्रसिद्ध और प्रेरक कविता “वरदान मांगूंगा नहीं”। इससे पहले हम जान लेते हैं इनका जीवन परिचय।
डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ का जीवन परिचय
इनका जन्म 5 अगस्त 1915 में उन्नाव, उत्तर प्रदेश हुआ था, तथा इनका निधन 27 नवंबर 2002 को उज्जैन, मध्य प्रदेश में हुआ। इनका मूल नाम शिवमंगल सिंह है तथा ‘सुमन’ इनका उपनाम है।
डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन ने विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष, भारतीय विश्वविद्यालय संघ के अध्यक्ष, कालिदास अकादेमी के कार्यकारी अध्यक्ष आदि के रूप में अपने जीवनकाल में सेवा दी।
डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की रचनायें
इनका पहला कविता-संग्रह ‘हिल्लोल’ सन् 1939 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद ‘जीवन के गान’, ‘युग का मोल’, ‘प्रलय-सृजन’, ‘विश्वास बढ़ता ही गया’, ‘पर आँखें नहीं भरीं’, ‘विंध्य-हिमालय’, ‘मिट्टी की बारात’, ‘वाणी की व्यथा’, ‘कटे अँगूठों की बंदनवारें’ संग्रह प्रकाशित हुए। इसके अतिरिक्त, इन्होंने ‘प्रकृति पुरुष कालिदास’ नाटक, ‘महादेवी की काव्य साधना’ और ‘गीति काव्य: उद्यम और विकास’ समीक्षा ग्रंथ भी लिखे हैं। ‘सुमन समग्र’ नाम से इनकी कृतियों को संकलित किया गया है।
शिवमंगल सिंह को दिए गये सम्मान
इनकी रचना ‘मिट्टी की बारात’ काव्य संग्रह के लिए इन्हें सन् 1974 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने इन्हें 1974 में पद्मश्री और 1999 में पद्मभूषण सम्मान से नवाज़ा।
कविता “वरदान मांगूंगा नहीं”
“वरदान मांगूंगा नहीं” कविता की व्याख्या
आज हम पढ़ रहें हैं डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन की मार्मिक कविता “वरदान मांगूंगा नहीं” जो की आत्मनिर्भरता और गरिमा का सार प्रस्तुत करती है। इस कविता के जरिए कवि ने आशीर्वाद या कृपा की चाहत को पूरी तरह से खारिज कर दिया है, तथा आत्म-प्रयास और आंतरिक शक्ति के महत्व पर जोर दिया है। इस कविता से शिवमंगल सिंह सुमन पाठकों को अपने भीतर लचीलापन लाने और उद्देश्य खोजने के लिए प्रेरित करते हैं।
कविता “वरदान मांगूंगा नहीं”
यह हार एक विराम है
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूँगा पर
दया की भीख मैं लूँगा नहीं ।
वरदान माँगूँगा नहीं ।।
स्मृति सुखद प्रहरों के लिए
अपने खण्डहरों के लिए
यह जान लो मैं विश्व की सम्पत्ति चाहूँगा नहीं ।
वरदान माँगूँगा नहीं ।।
क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संघर्ष पथ पर जो मिले
यह भी सही वह भी सही ।
वरदान माँगूँगा नहीं ।।
लघुता न अब मेरी छुओ
तुम हो महान बने रहो
अपने हृदय की वेदना मैं व्यार्थ त्यांगूँगा नहीं ।
वरदान माँगूँगा नहीं ।।
चाहे हृदय को ताप दो
चाहे मुझे अभिशाप दो
कुछ भी करो कर्त्तव्य पथ से
किन्तु भागूँगा नहीं ।
वरदान माँगूँगा नहीं ।।