उपभोक्तावाद की संस्कृति पाठ का सारांश | Upbhoktawad Ki Sanskriti | Class-IX, Chapter-3 (CBSE/NCERT)
पाठ सारांश – उपभोक्तावाद की संस्कृति (Upbhoktawad Ki Sanskriti)
लेखक – श्यामाचरण दुबे
पाठ-सार
विधा- निबन्ध
इस पाठ में बढते उपभोक्तावाद से हमारे समाज और जीवन पर पङने वाले प्रभावों के बारे में बतया गया है कि किस तरह हम खुद को सम्पन और आधुनिक दिखाने की रेस में उपभोक्तावादी बनते जा रहे हैं।
जीवन शैली में बदलाव – धीरे-धीरे हमारे जीने के तरीके में बदलाव आ रहा है । उपभोक्तावाद बढ़ रहा है । सब जगह उत्पादन बढ़ाने पर जोर है। उपभोग को ही ‘सुख’ मान लिया गया है । उत्पादों का भोग करते-करते हम उत्पादों को ही समर्पित होते जा रहे हैं।
विलासितापर्ण सामग्री का विशेष प्रसार – बाजार में विलासितापूर्ण सामग्री की अधिकता है । विज्ञापन मनुष्य को लुभाने में लगे हुए हैं । टूथ-पेस्ट, टूथ-ब्रश, सौंदर्य प्रसाधन, साबुन आदि। सभी की विशेषताएँ बढ़ा-चढ़ाकर बताई जा रही हैं । प्रत्येक विज्ञापन नए तरीके से आकर्षित करता है।
फैशन की प्रतियोगिता – सौंदर्य-प्रसाधनों की प्रतियोगिता में उच्चवर्ग की महिलाओं की ड्रेसिंग टेबल पर तीस-तीस हजार की सौंदर्य-सामग्रियाँ एकत्रित हो जाती हैं । आज के पुरुष भी इस दौड़ में पीछे नहीं हैं । वे भी अब साबुन-तेल से आगे आफ्टर शेव लोशन और कोलोन लगाने लगे हैं । स्थान-स्थान पर नए डिजाइन के कपड़े बेचने वाले बुटीक खुल गए हैं । घड़ी में समय न देखकर फैशन देखा जाता है । लोग लाख-डेढ़ लाख की घड़ी खरीदने लगे हैं।
हैसियत के लिए खरीद – आज लोग जरूरत की अपेक्षा प्रतिष्ठा के लिए वस्तुएँ खरीदने लगे हैं । म्यूजिक सिस्टम हो या कम्प्यूटर बहुत से लोग इन्हें शान के लिए खरीदते हैं । खाने के लिए पाँच सितारा होटल । इलाज के लिए पाँच सितारा अस्पताल । बच्चों की शिक्षा के लिए पाँच सितारा पब्लिक स्कूल । यहाँ तक कि लोग पैसे के बल पर अपने अंतिम संस्कार की भी शानदार व्यवस्था करने लगे हैं ।
उपभोक्तावाद का बढ़ावा क्यों – आज उपभोक्तावाद का विस्तार सामंती संस्कृति के कारण हो रहा है। ये सामंती तत्व आज भी भारत में हैं । केवल सामंतों के रूप बदल गए हैं । हमारी सांस्कृतिक पहचान, परंपराएँ, आस्थाएँ धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं । हम पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण कर रहे हैं । अपने को प्रतिष्ठित बनाने के लिए हम आधुनकिता का छल कर रहे हैं । हमारी संस्कृति की पकड़ ढीली होने से पथभ्रष्ट होकर हम किसी और से निर्देशित हो रहे हैं । विज्ञापन और प्रचार-प्रसार की शक्तियाँ हमें सम्मोहित कर रही हैं ।
उपभोक्तावाद का दुष्परिणाम – उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण हमारे सीमित संसाधनों का अपव्यय हो रहा है । सामाजिक सम्बन्धों में दूरी आ रही है । जीवन-स्तर का अंतर अशांति को बढ़ा रहा है, जिससे सांस्कृतिक पहचान खत्म हो रही है । विकास का उद्देश्य समाप्त होता जा रहा है । मर्यादाएँ टूट रही हैं और व्यक्ति का जीवन केंद्रित होता चला जा रहा है । हमारे भोग की लालसाएँ आसमान छू रही हैं।
गांधी जी ने कहा था – हम सब ओर से स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभाव को अवश्य स्वीकार करें किन्तु अपनी बुनियाद । न छोड़ें । उपभोक्तावादी संस्कृति हमारी इसी नींव को चुनौती दे रही है।