मजदूर दिवस | Labour Day Hindi Poem

मजदूर दिवस | Labour Day Hindi Poem

सूरज की पहली किरण के साथ
जीवन की आधी व्याधि से थक कर चूर,
सोया मजदूर बिस्तर छोड़ उठ जाता है
बांध अंगोछा सर पर अपने घर छोड़ निकल जाता है
सूरज की बढ़ती गर्मी के साथ
उसके तन के कपड़े उतर जाते हैं
पर अंगोछा वही बंधा रहता है
पैरों की चप्पलों ने भी साथ छोड़ा है
मोची नहीं है पास, रस्सी बांध उसने जोड़ा है
हाथों के छालों को देखने का अभी वक्त नहीं है
क्योंकि खाने को अभी भोजन नहीं है
अब तो सूरज का भी चढ़ा पारा है
पानी ही एकमात्र सहारा है
शहर की भीड़भाड़ में ढूंढ रहा एक नल है
पर वह भी मिलना उसको मुश्किल है
पानी लेकर पीना ही एक हल है
सोच विचार फिर आगे बढ़ता है
बड़ी मुश्किल से दिखता उसको एक नल है
उससे पानी भर पीता है
फिर अंगोछा उतार सर से कहता है
शहर की माया में फंस कर मैं तार हो गया हूँ
खाने को मिले कहां से पानी को लाचार हो गया हूँ
ढलते सूरज के साथ फिर वह घर जाता है
जो कुछ भी पाया उसने उसे घर ले जाता है
रख अंगोछा सर के नीचे जमीन को बिस्तर बनाता है
फिर से सूरज की पहली किरण की राह देखता है।

                                                                    – nisha nik

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