हिन्दी साहित्य के प्रमुख रासो ग्रन्थ | Major Raso texts of Hindi literature
आदिकाल में प्रशस्ति-काव्य को ही ‘रासो’ कहा गया।यही प्रबंध काव्य परंपरा हिन्दी साहित्य में’रासो’ के नाम से पाई जाती है।
आदिकाल में प्रशस्ति-काव्य को ही ‘रासो’ कहा गया। इसे शुक्ल जी ने आदिकाल के प्रकरण 1 में ही स्पष्ट करते हुए लिखा था, “राजाश्रित कवि और चारण जिस प्रकार नीति, शृंगार आदि के फुटकल दोहे राजसभाओं में सुनाया करते थे, उसी प्रकार अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रमपूर्ण चरितों या गाथाओं का वर्णन भी किया करते थे। यही प्रबंध परंपरा ‘रासो’ के नाम से पाई जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने, ‘वीरगाथाकाल’ कहा है।”
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खुमाणरासो
रचना – खुमाणरासो
रचनाकार – दलपत विजय
रचनाकाल – 9वीं शती
काव्यरूप – प्रबंध
चित्तौड़ नरेश खुमाण की वीरता का वर्णन किया गया है।
मेवाड़ के परवर्ती शासकों (महाराणा प्रताप सिंह, राज सिंह) का वर्णन है।
इससे लगता है कि यह रचना 17वीं शती के आसपास की है। किंतु यह बाद में जोड़ा गया।
यह 5000 छंदों का विशाल काव्य ग्रंथ है।
विजयपालरासो
रचना – विजयपालरासो
रचनाकार – नल्हसिंह भाट
रचनाकाल – 11वीं शती
काव्यरूप – वीरगीत
यह रचना अनुपलब्ध है।
विजयगढ़ के राजा विजयपाल का प्रशस्ति-ग्रंथ।
बीसलदेवरासो
रचना – बीसलदेवरासो
रचनाकार – नरपति नाल्ह
रचनाकाल – 12वीं शती
काव्यरूप – वीरगीत
एक विरहपरक संदेश काव्य, जिसमें अजमेर के राजा चौहान बीसलदेव तथा राजा भोज की पुत्री राजमती के विवाह, वियोग और पुनर्मिलन की कथा है।
रासो होते हुए भी यह प्रधानतः शृंगारी काव्य है।
हिंदी में सर्वप्रथम बारहमासा वर्णन इसमें मिलता है।
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पृथ्वीराजरासो
रचना – पृथ्वीराजरासो
रचनाकार – चंदबरदाई
रचनाकाल – 12वीं शती
काव्यरूप – प्रबंध (पिंगल शैली)
इसके उत्तरार्द्ध को पुत्र जल्हण ने रचा था।
पृथ्वीराज चौहान के शौर्य और वीरता के अलावा, संयोगिता के साथ उनकी प्रेम-कहानी
का भी सुंदर वर्णन किया है।
69 समय (सर्ग) और 68 प्रकार के छंदों का प्रयोग।
मुख्य छंद है: कवित्त, छप्पय, दूहा, तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या। चंद कवि ‘छप्पय छंद’ के विशेषज्ञ थे।
जयचंद प्रकाश और जयमयंक जस चद्रिका
रचना – जयचंद प्रकाश
रचनाकार – भट्ट केदार
रचनाकाल – 12वीं शती
काव्यरूप – वीरगीत प्रबंध
रचना – जयमयंक जस चद्रिका
रचनाकार – मधुकर कवि
रचनाकाल – 12वीं शती
काव्यरूप – प्रबंध
जयचंद प्रकाश और जयमयंक जस चद्रिका इन दोनों रचनाओं में कन्नौज के सम्राट जयचंद के शौर्य और पराक्रम की कथा का वर्णन होना अनुमानित किया जाता है।
दोनों ग्रंथ अप्राप्य हैं किंतु सिंठायच दयालदास कृत ‘राठौरा री ख्यात’ में इनका उल्लेख है।
परमालरासो
रचना – परमालरासो
रचनाकार – जगनिक
रचनाकाल – 13वीं शती
काव्यरूप – वीरगीत
महोबा के राजा परमाल देव के दो वीरों आल्हा और ऊदल (उदयसिंह) की वीरता का वर्णन।
उत्तर प्रदेश में वर्षा ऋतु में ‘आल्हाखंड’ के नाम से गाया जाता है। केंद्र बैसवाड़ा है।
फर्रुखाबाद के तत्कालीन क्लेक्टर चार्ल्स इलियट ने सर्वप्रथम 1865 ई. में इसे प्रकाशित करवाया था।
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रणमल्ल छंद
रचना – रणमल्ल छंद
रचनाकार – श्रीधर
रचनाकाल – 14वीं शती
काव्यरूप – वीरगीत
ईडर के राठौर राजा रणमल्ल की पाटन के सूबेदार जफर खाँ पर प्राप्त विजय का वर्णन।
यह 70 छंदों का काव्य ग्रंथ है।
कीर्तिलता और कीर्तिपताका
रचना – कीर्तिलता और कीर्तिपताका
रचनाकार – विद्यापति
रचनाकाल – 14वीं शती का अंत या 15वीं का आरंभ इन दोनों का समय
काव्यरूप – प्रबंध (पूरबी अपभ्रंश)
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कीर्तिलता
तिरहुत के राजा कीर्तिसिंह द्वारा अपने पिता का बदला लेने का वर्णन।
ऐतिहासिक महत्त्व-जौनपुर नगर का यथार्थ वर्णन।
कवि ने इसे स्वयं ‘कहाणी’ कहा है।
स्वयं इसकी भाषा को ‘अवहट्ट’ कहा।
इसकी रचना श्रृंग-भृंगी संवाद में है।
कीर्तिपताका
यह अप्राप्य है।
तिरहुत के राजा शिवसिंह की प्रशस्ति है।
शारंगधर कृत ‘हम्मीररासो’ (14वीं शती) भी रासो काव्य है, जो कि अनुपलब्ध है।