हिन्दी साहित्य में मनोविश्लेषणवाद | Hindi saahity mein manovishleshanavaad

साहित्य का सम्बन्ध मानव मन से प्रगाढ़ रूप में है , मनोविज्ञान मानव व्यवहार का अध्ययन करता है और साहित्यकार मानव व्यवहार का विश्लेषण करता है।

हिन्दी साहित्य में मनोविश्लेषणवाद

आधुनिक साहित्य को ‘मनोविश्लेषणवाद’ ने भी पर्याप्त प्रभावित किया है। साहित्य का सम्बन्ध मानव मन से प्रगाढ़ रूप में है अत साहित्यकारों द्वारा प्रस्तुत चरित्र-चित्रण पर आधुनिक मनोविज्ञान एव मनोविश्लेषणवाद का प्रभाव प्रमुख रूप में परिलक्षित होता है। मनोविज्ञान मानव व्यवहार का अध्ययन करता है और साहित्यकार मानव व्यवहार का विश्लेषण करता है। पाश्चात्य साहित्यकारों ने फ्रायड, एडलर एव युग के सिद्धान्तों का उपयोग अपने पात्रों के चरित्राकन मे किया। हिन्दी के कुछ उपन्यासकारों, यथा-अज्ञेय. जैनेन्द्र एवं इलाचन्द्र जोशी ने ऐसे पात्रों की सृष्टि की जो फ्रायड, युग एवं एडलर के सिद्धान्तों से परिचालित है

मनोविश्लेषणवादी

फ्रायड

फ्रायड ने अचेतन मन और काम भावना (लिविडो) को अपने मनोविश्लेषण में प्रमुख स्थान दिया। फ्रायड काम भावना (लिवडो) को मानव मन की मूल परिचालिका शक्ति मानता है। जब हम सामाजिक मूल्यों एवं नैतिकता के बन्धनों के कारण अपनी काम प्रवृत्ति एवं वासना का दमन करते हैं तब वह अचेतन मन में कुण्ठा या मनोग्रन्थि का रूप धारण कर लेती है। साहित्य और कला इन वासनाओं एवं मनोग्रन्थियों के रेचन का मार्ग प्रशस्त करती है।

फ्रायड मानव मन की मूल परिचालक शक्ति के रूप में ‘लिविडो’ (काम भावना) को स्वीकार करता है। जब सामाजिक एवं नैतिक बन्धनों के कारण इसका मार्ग अवरुद्ध होता है तब कुण्ठा, मनोग्रन्थि, अह, उम्माद जैसे रोग उत्पन्न हो जाते हैं।


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एडलर

‘एडलर’ ने मानव के मन में उत्पन्न ‘हीन भावना’ को मन की परिचालिका शक्ति माना है। हीनता की अनुभूति मनुष्य के मन में अह भाव को जन्म देती है और इससे परिचालित होकर वह अपने महत्व को अनुभव करने एवं कराने की आवश्यकता अनुभव करते हुए तदनुसार आचरण एवं व्यवहार करता है।

युंग

‘युंग’ के अनुसार मनुष्य की स्मृतिया मानसिक कार्य व्यापार को चेतन मन में एकत्र नहीं रख पाती और वे अचेतन में चली जाती है। अचेतन मन में दमित रहने वाली अनुभूतियां, स्मृतिया एवं विचार ‘अहं’ को स्वीकार्य नहीं हो पाते. परिमाणतः वहा भय, आशका, मृत्यु जैसी स्थितिया उत्पन्न हो जाती है, जिससे मनुष्य का जीवन प्रभावित होता है।

मनोवैज्ञानिक उपन्यासकारों ने अपने व्यक्ति चरित्रों का निर्माण इसी आलोक में किया है। अज्ञेय के उपन्यास ‘शेखर एक जीवनी’ का शेखर, जैनेन्द्र के त्यागपत्र की मृणाल एवं ‘सुनीता’ उपन्यास की नायिका सुनीता’ और इलाचन्द्र जोशी के पात्र चन्द्रमोहन, महीप, नकुलेश आदि इन्ही ग्रन्थियों से परिचालित पात्र है।

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