Sri Krishna | छल करने के बाद भी, श्री कृष्ण अधर्मी क्यों नहीं कहे जाते
छल करने के बाद भी, श्री कृष्ण (Sri Krishna) अधर्मी नहीं कहे जाते है। क्योंकि श्री कृष्ण (Sri Krishna) का छल समाज के कल्याण के लिए था।
हो सकता है धर्म का अर्थ सभी अलग-अलग समझें या ये भी हो सकता है कि कभी का धर्म कभी का अधर्म हो सकता है। कुछ भी होना सम्भव है। अब ऐसे में लोगों के मन में ये सवाल होता है कि कौन सा धर्म सही हैं और कौन सा गलत? यहां पर पाठक इस बात का ध्यान रखें कि हम यहां पर समाज में परचलित धर्म की बात नहीं कर रहें हैं। जिसे आप सब हिन्दू, मुसलिम, पारसि और जाने कितने नामों से जानते हैं। हम यहां उस धर्म की बात कर रहें हैं जो सत्य, अटल है, जिसे धारण किया जाता है।आज जब भी हम श्री कृष्ण की बात करते हैं तो बहुत से लोगों का सवाल होता है, श्री कृष्ण छल करने के बाद भी अधर्मी क्यों नहीं कहे जाते हैं। ये सवाल दुविधा पूर्ण सवाल है और सभी इसका जवाब अपने स्तर पर देते हैं। पर हम कभी इस बात को समझने पर विचार नहीं करते कि छल करने के बाद भी, श्री कृष्ण अधर्मी क्यों नहीं कहे जाते है। आईये यहां इस बात पर विचार करें।
अगर कोई व्यक्ति अपने व्यक्तिगत धर्म का पालन पूरी निष्ठा से करता है, लेकिन उस व्यक्ति के व्यक्तिगत धर्म से समाज को हानि होता है या उसमें समाज का कल्याण निहित नहीं हैं तो उस व्यक्ति का धर्म भी अधर्म की श्रेणी में रखा जाता है। क्योंकि धर्म कभी एकल को परिभाषित नहीं करता है। धर्म का अर्थ है, जिसमें आपके साथ-साथ समाज का कल्याण भी निहित हो। अगर आपके द्वारा किये गये कार्य में समाज का कल्याण नहीं है या आपके द्वारा किये गये कार्य से समाज को हानि पहुंच रहा है तो आप अधर्मी है। आप का व्यक्तिगत धर्म कभी भी समाज कल्याण से ऊपर नहीं हो सकता है। अगर समाज कल्याण के लिए आपको अपने व्यक्तिगत धर्म का त्याग करना पङे तो कर देना चाहिए। सामज कल्याण के लिए अपने व्यक्तिगत धर्म का त्याग करना अधर्म नहीं कहलाता है। यही कारण है कि छल करने के बाद भी, श्री कृष्ण अधर्मी नहीं कहे जाते है। क्योंकि श्री कृष्ण का छल समाज के कल्याण के लिए था। हम मनुष्य को हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए की दूसरों के हित के बारे में सोचना और कार्य करना धर्म है। इसका नियमों से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए नियम तोङने के बावजूद श्री कृष्ण धर्म के सबसे बङे प्रतिपालक कहे जाते है, क्योंकि उन्होंने दूसरों की परवाह की। दूसरों के लिए संवेदनशील रहना दूसरों की परवाह करना धर्म है। इसका धर्म के तथा-कथित नियमों से कोई लेना-देना नहीं है।
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