जयशंकर प्रसाद की कविता ‘आत्मकथ्य’ का सार तथा मूल पाठ, सप्रसंग व्याख्या | Class-X, Chapter-3 (CBSE/NCERT)

जयशंकर प्रसाद की कविता ‘आत्मकथ्य’ का सार तथा मूल पाठ, सप्रसंग व्याख्या और कवि परिचय| Class-X, Chapter-1 (CBSE/NCERT)

जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय

जीवन परिचय-हिन्दी की अनेक विधाओं को अपनी बहुमुखी प्रतिभा से समृद्ध बनाने वाले, छायावादी कविता के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 1889 ई. में काशी नगर में हुआ था। इनके पिता बाबू देवी प्रसाद थे। वह एक विद्याप्रेमी व्यवसायी थे। काशी में वह ‘सुँघनी साहू’ नाम से प्रसिद्ध थे।

प्रसाद जी की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। क्वीन्स कॉलेज में अध्ययन के बाद आपने स्वाध्याय से ही हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू तथा फारसी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। साहित्य में आपकी बचपन से ही रुचि थी। आपने ‘इन्दु’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी किया। 15 नवम्बर 1937 को आपका स्वर्गवास हो गया।


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जयशंकर प्रसाद की प्रमुख-रचनाएँ

साहित्यिक परिचय – जयशंकर प्रसाद बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न साहित्यकार थे। आपने काव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी तथा निबन्ध आदि विधाओं के माध्यम से हिन्दी साहित्य को समृद्धि प्रदान की। हिन्दी कविता के छायावादी कवियों में आपका विशिष्ट स्थान है। ‘कामायनी’ महाकाव्य आपकी अक्षय कीर्ति की पताका है।

इस काव्य द्वारा आपने भारतीय संस्कृति के ‘सत्यं, शिवं, सुंदरम्’ के आदर्श को साकार करने का स्मरणीय प्रयास किया है। रचनाएँ-प्रसाद जी की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-jayshankar prasaad kee kavita aatmakathy

 काव्य रचनाएँ

कामायनी, आँसू, झरना, लहर, चित्राधार, प्रेम पथिक।

नाटक

चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, विशाखा, राज्यश्री, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ, कामना, एक घूँट, प्रायश्चित ।

उपन्यास

तितली, कंकाल, इरावती (अपूर्ण) । कहानी संग्रह-प्रतिध्वनि, आकाशदीप, छाया, आँधी, इन्द्रजाल।

निबन्ध

काव्यकला तथा अन्य निबन्ध।

जयशंकर प्रसाद की कविता ‘आत्मकथ्य’ का सार

‘आत्मकथ्य’ जयशंकर प्रसाद की छायावादी शैली में लिखी कविता है। इसमें जीवन के यथार्थ तथा अभाव की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। कवि ने ललित, सुन्दर एवं नवीन शब्दों तथा बिंबों के द्वारा बताया है कि उनके जीवन की कथा एक सामान्य मनुष्य के जीवन की कथा है। इसमें कुछ भी रोचक एवं प्रशंसनीय नहीं है। इस कविता से प्रसाद जी को विनम्रता तथा आत्मकथा लिखने के बारे में असहमति व्यक्त होती है। यह कविता प्रेमचन्द द्वारा सम्पादित पत्रिका हंस में सन् 1932 मैं प्रकाशित हुई थी।


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कविता ‘आत्मकथ्य’ का काव्यांश तथा सप्रसंग व्याख्या

(1)  मधुप गुन-गुना कर कह जाता, कौन कहानी यह अपनी,

मधुप गुन-गुना कर कह जाता, कौन कहानी यह अपनी,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ, देखो कितनी आज घनी ।
इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्य जीवन-इतिहास,
यह लो, करते ही रहते हैं, अपना व्यंग्य-मलिन उपहास ।
तब भी कहते हो – कह डालूँ, दुर्बलता अपनी बीती,
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे- यह गागर रीती ।

सन्दर्भ तथा प्रसंग

प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक क्षितिज-2 में संकलित कवि जयशंकर प्रसाद की कविता ‘आत्मकथ्य’ से लिया गया है। कवि यहाँ अपनी आत्मकथा लिखने की असहमति व्यक्त कर रहा है।

मधुप गुन-गुना कर कह जाता, कौन कहानी यह अपनी, पद की व्याख्या

कवि कहता है कि गुंजन करते भौरे और डालों से मुरझाकर गिरती पत्तियाँ जीवन की करुण कहानी सुना रहे हैं । उनका अपना जीवन भी एक दुःख भरी कहानी है । इस अनंत नीले आकाश के तले नित्यप्रति असंख्य जीवन-इतिहास (आत्मकथाएँ) लिखे जा रहे हैं। इन्हें लिखने वालों ने अपने आपको ही व्यंग्य तथा उपहास का पात्र बनाया है ।

कवि मित्रों से पूछता है कि क्या यह सब देखकर भी वे चाहते हैं कि वह अपनी दुर्बलताओं से युक्त आत्मकथा लिखे ? इस खाली गगरी जैसी महत्त्वहीन आत्मकथा को पढ़कर उन्हें क्या सुख मिलेगा ?

पद की विशेष

1. कवि ने अपना जीवन खाली गागर के समान महत्वहीन बताकर अपनी विनम्रता का परिचय दिया है।

2. मानवीकरण अलंकार से भाषा के सौन्दर्य में वृद्धि हो रही है।

3. वृक्षों से झरती पत्तियों के माध्यम से प्रकृति के शाश्वत सत्य का उ‌द्घाटन किया है।

(2)  किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले –

किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले –
अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले ।
यह विडंबना ! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं ।
भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।
उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की ।
अरे खिल-खिला कर हँसते होने वाली उन बातों की

सन्दर्भ तथा प्रसंग

प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक क्षितिज-2 में संकलित कवि जयशंकर प्रसाद की कविता ‘आत्मकथ्य’ से लिया गया है। इस अंश में कवि अपनी मधुर स्मृतियों के बारे में सोचकर अपने मन को कष्ट नहीं देना चाहता है।

किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले -पद की व्याख्या

कवि अपने मित्रों से कहता है-कहीं ऐसा न हो कि मेरे रस से शून्य, खाली गागर जैसे जीवन के बारे में पढ़कर तुम स्वयं को ही अपराधी समझने लगो । तुम्हें ऐसा लगे कि तुमने ही मेरे जीवन से रस चुराकर अपनी सुख की गगरी को भरा है।


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कवि कहता है कि मैं अपनी भूलों और ठगे जाने के विषय में बताकर अपनी सरलता की हँसी उड़ाना नहीं चाहता । मैं अपने प्रिय के साथ बिताए जीवन के मधुर क्षणों की कहानी किस बल पर सुनाऊँ? वे खिल-खिलाकर हँसते हुए की गई बातें अब एक असफल प्रेमकथा बन चुकी हैं। उन भूली हुई मधुर-स्मृतियों को जगाकर मैं अपने मन को व्यथित करना नहीं चाहता ।

पद की विशेष

1. इस अंश में कवि के हृदय की सरलता का वर्णन हुआ है।

2. वर्णन शैली आत्मकथात्मक का पुट लिए है।

3. अलंकारों का प्रयोग भाषा को प्रभावशाली बना रहा है।

(3)  मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया ।

मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया ।
आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया ।
जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में।
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में ।
उसकी स्मृति पाथेय बनी है, थके पथिक की पंथा की ।
सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की ?

सन्दर्भ तथा प्रसंग

प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक क्षितिज-2 में संकलित कवि जयशंकर प्रसाद की कविता ‘आत्मकथ्य’ से लिया गया है। इस अंश में कवि वर्णन करता है कि वह अपनी प्रियतमा की मधुर स्मृतियों के सहारे अपना जीवन व्यतीत कर रहा है।

मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया । पद की व्याख्या

कवि कहता है – मैंने जीवन में जो सुख के सपने देखे वे कभी साकार नहीं हुए। सुख मेरी बाँहों में आते-आते मुझे तरसाकर गया और मेरा अपने प्रिय को पाने का सपना अधूरा ही रह गया । मेरी प्रिया के गालों पर छाई लालिमा इतनी सुंदर और मस्ती भरी थी कि लगता था प्रेममयी उषा भी अपनी माँग में सौभाग्य का सिंदूर भरने के लिए उसी लालिमा को लिया करती थी ।

आज मैं एक थके हुए यात्री के समान हूँ। प्रिय की स्मृतियाँ मेरी इस जीवन-यात्रा में मार्ग के भोजन के समान हैं। उन्हीं के सहारे मैं जीवन बिताने का बल जुटा पा रहा हूँ। मैं नहीं चाहता कि कोई मेरी इन यादों की गुदड़ी को उधेड़कर मेरे व्यथित हृदय में लाँके । मित्रो । आत्मकथा लिखकर मेरी वेदनामय स्मृतियों को क्यों जगाना चाहते हो ?

पद की विशेष

1. बीते समय की मधुर स्मृतियाँ प्रिया के न रहने पर वेदना ही देती है।

2. कवि के अपनी आत्मकथा लिखने पर असहमति व्यक्त की है।

3. तत्सम प्रधान खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग दृष्टव्य है।

4. छायावाद का पुर लिए मर्मस्पर्शी रचना पाठक को उद्वेलित करती है।

(4)  छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ ?

छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ ?
क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्म-कथा ?
अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा ।

सन्दर्भ तथा प्रसंग

प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक क्षितिज-2 में संकलित कवि जयशंकर प्रसाद की कविता ‘आत्मकथ्य’ से लिया गया है। इस अंश में कवि अपने जीवन को छोटा और महत्वहीन बताकर अपनी आत्मकथा न लिखने के लिए कह रहा है।

छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ ? पद की व्याख्या

कवि का कहना है कि उसका जीवन एक साधारण सीधे-सादे व्यक्ति की कहानी हैं। इस छोटे से जीवन को बढ़ा-चढ़ाकर लिखना उसके लिए संभव नहीं है। इस पाखण्ड के बजाय तो उसका मौन रहना और दूसरों की यश-गाथाएँ मनते रहना कहीं अच्छा है। वह अपने मित्रों से कहता है कि वे उस जैसे भोले-भाले, निष्कपट, दुर्बल हृदय, सदा छले जाते हे व्यक्ति की आत्मकथा सुनकर क्या करेंगे ?

उनको इसमें कोई उल्लेखनीय विशेषता या प्रेरणाप्रद बात नहीं मिलेगी । इसके अतिरिक्त यह आत्मकथा लिखने का समय भी उचित नहीं है। मुझे निरंतर पीड़ित करने वाली व्यथाएँ थककर शांत हो चुकी हैं। मैं नहीं चाहता कि आत्मकथा लिखकर मैं उन कटु, व्यथित करने वाली स्मृतियों को फिर से जगा दू।

पद की विशेष

1. जीवन के यथार्थ तथा अभाव की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है।

2. ललित, सुन्दर एवं नवीन शब्दों द्वारा कवि ने अपने जीवन की कथा एक सामान्य मनुष्य की जीवन की कथा बताया है।

3. छोटा जीवन बड़ी कथा में विरोधाभास शैली का प्रयोग हुआ है।

4. अनुप्रास और मानवीकरण अलंकार के प्रयोग में रचना रूचिकर बन पड़ी है।

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