सुदामा चरित | Sudama Charit | Class-VIII, Chapter-12 (CBSE/NCERT)


Sudama Charit | सुदामा चरित कविता के कवि नरोत्तमदास है। सुदामा चरित (Sudama Charit) कविता में कवि ने श्री कृष्ण और सुदामा की दोस्ती का वर्णन किया है।


सुदामा चरित कविता के कवि नरोत्तमदास है। श्री नरोत्तमदास जी हिंदी साहित्य के एक महान कवि हैं। ये सगुण भक्ति के कवि हैं। इनका जन्म वाड़ी, सीतापुर, उत्तर प्रदेश हुआ। इनकी जन्मतिथि को लेकर विद्वानों में मतभेद है, लेकिन कुछ विद्वान मानते हैं कि इनका जन्म सन् 1493 में हुआ। सुदामा चरित इनकी सबसे प्रसिद्ध रचना है, जिसे हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर माना जाता है।


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सुदामा चरित कविता में कवि नरोत्तमदास जी ने श्री कृष्ण और सुदामा की दोस्ती का वर्णन किया है। उन्होंने कविता में बताया है कि सुदामा जी अपनी गरीबी और बदहाली से तंग आकर अपने परम मित्र श्री कृष्ण से मदद मांगने जाते हैं। वहाँ उनकी हालत देखकर द्वारपाल उन्हें महल में घुसने नहीं देते। फिर जब श्रीकृष्ण को उनके आने का पता चलता है, तो दौड़े चले आते हैं और अपने अश्रुओं से सुदामा जी के पैर धुलाते हैं।

कविता- सुदामा चरित, भावार्थ सहित

सीस पगा न झगा तन में प्रभु, जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।
धोति फटी-सी लटी दुपटी अरु, पाँय उपानह की नहिं सामा॥
द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एक, रह्यौ चकिसौं वसुधा अभिरामा।
पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥

भावार्थ– इस पद में कवि ने सुदामा के श्रीकृष्ण के महल के द्वार पर खड़े होकर अंदर जाने की इजाज़त मांगने का वर्णन किया है। श्रीकृष्ण का द्वारपाल आकर उन्हें बताता है कि द्वार पर बिना पगड़ी, बिना जूतों के, एक कमज़ोर आदमी फटी सी धोती पहने खड़ा है। वो आश्चर्य से द्वारका को देख रहा है और अपना नाम सुदामा बताते हुए आपका पता पूछ रहा है।


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ऐसे बेहाल बेवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये।
हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये॥
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये॥

भावार्थ– द्वारपाल के मुँह से सुदामा के आने का ज़िक्र सुनते ही श्रीकृष्ण दौड़कर उन्हें लेने जाते हैं। उनके पैरों के छाले, घाव और उनमें चुभे कांटे देखकर श्रीकृष्ण को कष्ट होता है, वो कहते हैं कि मित्र तुमने बड़े दुखों में जीवन व्यतीत किया है। तुम इतने समय मुझसे मिलने क्यों नहीं आए? सुदामा जी की दयनीय दशा देखकर श्रीकृष्ण रो पड़ते हैं और पानी की परात को छुए बिना, अपने आंसुओं से सुदामा जी के पैर धो देते हैं।

कछु भाभी हमको दियौ, सो तुम काहे न देत।
चाँपि पोटरी काँख में, रहे कहौ केहि हेत॥
आगे चना गुरु-मातु दिये त, लिये तुम चाबि हमें नहिं दीने।
श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सों, चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने॥
पोटरि काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा-रस भीने।
पाछिलि बानि अजौं न तजी तुम, तैसइ भाभी के तंदुल कीने॥

भावार्थ– सुदामा जी की अच्छी आवभगत करने के बाद कान्हा उनसे मजाक करने लगते हैं। वो सुदामा जी से कहते हैं कि ज़रूर भाभी ने मेरे लिए कुछ भेजा होगा, तुम उसे मुझे दे क्यों नहीं रहे हो? तुम अभी तक सुधरे नहीं। जैसे, बचपन में जब गुरुमाता ने हमें चने दिए थे, तो तुम तब भी चुपके से मेरे हिस्से के चने खा गए थे। वैसे ही आज तुम मुझे भाभी का दिया उपहार नहीं दे रहे हो।

वह पुलकनि वह उठ मिलनि, वह आदर की बात।
यह पठवनि गोपाल की, कछू ना जानी जात॥
घर-घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज।
कहा भयौ जो अब भयौ, हरि को राज-समाज॥
हौं कब इत आवत हुतौ, वाही पठ्यौ ठेलि।
कहिहौं धनि सौं जाइकै, अब धन धरौ सकेलि॥

भावार्थ– इस पद में सुदामा के वापिस घर की तरफ लौटने का वर्णन है। वो सोचते हैं कि मैं मदद की उम्मीद लेकर श्रीकृष्ण के पास आया, लेकिन श्रीकृष्ण ने तो मेरी कोई मदद ही नहीं की। लौटते समय निराश और खिन्न सुदामा जी के मन में कई विचार घूम रहे थे, वो सोच रहे थे कि कृष्ण को समझना किसी के वश में नहीं है। एक तरफ तो उसने मुझे इतना आदर-सम्मान दिया, वहीं दूसरी तरफ मुझे बिना कुछ दिए लौटा दिया। मैं तो यहां आना ही नहीं चाहता है, वो तो मेरी धर्मपत्नी ने मुझे जबरदस्ती द्वारका भेज दिया। ये कृष्ण तो खुद बचपन में ज़रा-से मक्खन के लिए पूरे गाँव के घरों में घूमता था, इससे मदद की आस लगाना ही बेकार था।

वैसेइ राज-समाज बने, गज-बाजि घने, मन संभ्रम छायौ।
वैसेइ कंचन के सब धाम हैं, द्वारिके के महिलों फिरि आयौ।
भौन बिलोकिबे को मन लोचत सोचत ही सब गाँव मँझायौ।
पूछत पाँड़े फिरैं सबसों पर झोपरी को कहूँ खोज न पायौ॥


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भावार्थ– जब सुदामा अपने गाँव पहुंचते हैं, तो उन्हें आसपास सबकुछ बदला-बदला दिखता है। सामने बड़े महल, हाथी-घोड़े, गाजे-बाजे आदि देखकर सुदामा जी सोचते हैं कि कहीं मैं रास्ता भटककर फिर से द्वारका नगरी तो नहीं आ पहुंचा हूँ? मगर, थोड़ा ध्यान से देखने पर वो समझ जाते हैं कि ये उनका अपना गाँव ही है। फिर उन्हें अपनी झोंपड़ी की चिंता सताती है, वो बहुत लोगों से पूछते हैं, मगर अपनी झोंपड़ी को ढूँढ नहीं पाते।

कै वह टूटि-सि छानि हती कहाँ, कंचन के सब धाम सुहावत।
कै पग में पनही न हती कहँ, लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
भूमि कठोर पै रात कटै कहाँ, कोमल सेज पै नींद न आवत।
कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभु, के परताप तै दाख न भावत॥

भावार्थ– जब सुदामा जी को श्रीकृष्ण की महिमा समझ आती है, तो वो उनकी महिमा गाने लगते हैं। वो सोचते हैं कि कहाँ तो मेरे सिर पर टूटी झोंपड़ी थी, अब सोने का महल मेरे सामने खड़ा है। कहाँ तो मेरे पास पहनने को जूते नहीं थे, अब मेरे सामने हाथी की सवारी लेकर महावत खड़े हैं। कठोर ज़मीन की जगह मेरे पास नरम बिस्तर हैं। पहले मेरे पास दो वक्त खाने को चावल भी नहीं होते थे, अब मनचाहे पकवान हैं। ये सब प्रभु की कृपा से ही संभव हुआ है, उनकी लीला अपरम्पार है।

One thought on “सुदामा चरित | Sudama Charit | Class-VIII, Chapter-12 (CBSE/NCERT)

  • February 11, 2023 at 11:31 am
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    That helped a lot !! I swear tomorrow was me Hindi final exam and I didn’t know that these Bhavarth were also coming i just went on google for this and found this I scored full marks in Hindi just bcz of this.And these bhavarth were of 15 marks in my exams
    THANKS A LOT FOR THIS!!
    ALWAYS STAY HAPPY AND BLESSED!!

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