हिन्दी साहित्य में सन्त काव्य की प्रमुख विशेषताएं | Main features of saint poetry in Hindi literature
सन्त कवि निर्गुणोपासक थे। वे ईश्वर को निर्गुण, निराकार, एवं सर्वव्यापी मानते हैं वे ईश्वर निर्गुण को राम, हरि नामों से भी पुकारते हैं।
हिन्दी साहित्य में सन्त काव्य की प्रमुख विशेषताएं (Main features of saint poetry in Hindi literature)
1. सन्त काव्य भाव प्रधान है, कला प्रधान नहीं। वह ताजमहल की कुशल कारीगरी न होकर रम्य पर्वत श्रेणियो की भांति सहज सुन्दर है।
2. कविता करना इनका लक्ष्य न था। कविता तो इनके उपदेशों का साधन मात्र थी।
3. सन्त कवियों में प्रमुख कबीर भक्त और कवि बाद में हैं, समाज सुधारक
4. सन्त कवि निर्गुणोपासक थे। वे ईश्वर को निर्गुण, निराकार, अजन्मा, अविनाशी एवं सर्वव्यापी मानते हैं। कभी-कभी वे इस निर्गुण को राम, गोविन्द, हरि आदि नामों से भी पुकारते हैं।
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5. सन्त काव्य में ज्ञान की महत्ता को प्रतिपादित किया गया है। यह ज्ञान वेद-पुराणों या कुरान से नहीं, अपितु चित्त की निर्मलता एव हृदय की पावनता से प्राप्त किया जाता है। ज्ञान दशा में ही ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। विवेक युक्त ज्ञान दृष्टि ही व्यक्ति को अज्ञान, अन्धविश्वास एव पाखण्ड से मुक्त करती है। ज्ञान की अग्नि जब माया के जल में लगती है तो विषय-वासना का कीचड़ नष्ट हो जाता है-
अगिनि जु लागी नीर में बन्दू जलिया झारि।
उत्तर-दक्षिण के पंडिता रहे बिचारि बिचारि ।।
6. सन्त काव्य में गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए उसे ईश्वर से भी बड़ा दर्जा दिया गया है। गुरु ही ब्रह्म का साक्षात्कार कराता है, वही ज्ञान-नेत्र खोलता है। ‘गुरुदेव कौ अंग’ शीर्षक से संकलित साखियो में कबीर ने गुरु की महत्ता प्रतिपादित की है। गुरु की प्रतिष्ठा इन्होने नाथपन्थ से ग्रहण की।
7. सन्त काव्य में अद्वैतवादी दर्शन को स्थान मिला है। इनकी दार्शनिक मान्यताएं शंकर के अद्वैत दर्शन से प्रभावित है। ब्रह्म और जीव की एकता का प्रतिपादन, माया के अस्तित्व को स्वीकार करना, ईश्वर को निर्गुण-निराकार बताना, आत्मा की सर्वशक्तिमत्ता का प्रतिपादन सब कुछ शकर के अद्वैत दर्शन के अनुरूप है।
8. सन्त काव्य में रहस्यवाद की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। दाम्पत्य प्रतीकों के माध्यम से इन्होंने निर्गुण ब्रह्म के साथ माधुर्य भाव की भक्ति का समावेश करते हुए भावात्मक रहस्यवाद का विधान किया। कबीर का पद ‘दुलहिनि गावहु मंगलचार’ इसी प्रकार का भावात्मक रहस्यवादी पद है। दूसरी और कुण्डलिनी योग से सम्बन्धित पदों में उन्होंने साधनात्मक रहस्यवाद का विधान किया है। ‘अवधू गगन मण्डल घर कीजै’ पद मे साधनात्मक रहस्यवाद की प्रवृत्ति है।
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9. सन्त कवियों ने बाह्याडम्बरों का खण्डन किया। मूर्ति पूजा, तीर्थाटन, व्रत, रोजा, नमाज में इन्हें कोई विश्वास न था। हिन्दू-मुसलमान दोनों को इन्होने अन्धविश्वासो, सदियो, धर्मान्धता के लिए फटकारा। वे धर्म के सामान्य तत्वो-सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा, संयम, सदाचार को मानव के लिए आवश्यक मानते है।
10. सन्त कवि जाति प्रथा के विरोधी थे। ऊँच-नीच, छुआछूत एवं वर्णाश्श्रम व्यवस्था को अभिशाप मानकर इन्होंने निर्भीकता से इनका खण्डन किया। ब्राह्मण वर्ग इनके आक्रोश का शिकार बना। अधिकांश सन्त कवि स्वयं निम्न वर्ग से सम्बन्धित थे अतः उच्च वर्ग की मुखर आलोचना सन्त काव्य में अस्वाभाविक न थी।
11. सन्त कवियों का नारी विषयक दृष्टिकोण असन्तुलित एवं अतिवादी है। ये नारी को नरक का द्वार एवं माया का प्रतिरूप बताते हैं। नारी निन्दा करते हुए वे उसे ‘विष की बेल’ तक कह देते हैं। नारी के प्रति उनका यह दृष्टिकोण भी नाथपन्थियों का प्रभाव है।
13. सन्त काव्य की भाषा अपरिष्कृत है। साहित्यिक भाषा के स्थान पर बोलचाल की भाषा का प्रयोग वे अपने काव्य में करते थे। देशाटन के कारण उनकी भाषा में अनेक बोलियों एवं भाषाओं का मिश्रण दिखाई पड़ता है। बज, अवधी, खड़ी बोली, राजस्थानी, पंजाबी, फारसी, अरबी शब्दों के मिले-जुले रूप के कारण आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उनकी भाषा को सघुक्कड़ी भाषा या पंचमेल खिचड़ी भाषा कहा है। अनगढ़ भाषा होने पर भी उनकी भाषा भाव सम्प्रेषण में पूर्ण सफल है। उसकी शक्ति एवं सामर्थ्य के कारण आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को वाणी का डिक्टेटर तक कह दिया है।
14. सन्त काव्य में अलंकारों का प्रयोग चमत्कार प्रदर्शन के लिए न होकर भावों के उत्कर्ष के लिए हुआ है। वस्तुतः वे पिंगल शास्त्र के क ख ग से भी परिचित न थे। अतः काव्य में अलंकारों का समावेश कर सकने की शक्ति एवं सामर्थ्य उनमें थी ही नहीं। यह बात अलग है कि उनका काव्य अलकार विहीन नहीं है। उसमे अनायास ही उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास का समावेश हो गया।
15. सन्त काव्य में शान्त रस की प्रधानता है। श्रृंगार रस का पूर्ण परिपाक भी उसमें हुआ है। कबीर की उलटबांसियों में अद्भुत रस भी है।
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