धर्म/साधना के विषय में आचार्य शुक्ल जी के मत तथा रहस्यवाद के भेद | Acharya Shukla ji’s views on religion/sadhana and the differences in Mysticism

“धर्म का प्रवाह कर्म, ज्ञान और भक्ति, इन तीन धाराओं में चलता है। इन तीनों के सामंजस्य से धर्म अपनी पूर्ण सजीव दशा में रहता है।

धर्म/साधना के विषय में आचार्य शुक्ल के मत (Acharya Shukla ji’s views on religion/sadhana and the differences in mysticism)

धर्म का प्रवाह कर्म, ज्ञान और भक्ति, इन तीन धाराओं में चलता है। इन तीनों के सामंजस्य से धर्म अपनी पूर्ण सजीव दशा में रहता है। किसी एक के भी अभाव से वह विकलांग रहता है। कर्म के बिना वह लूला-लंगड़ा, ज्ञान के बिना अंधा और भक्ति के बिना हृदयविहीन क्या, निष्प्राण रहता है। ज्ञान के अधिकारी तो सामान्य से बहुत अधिक समुन्नत और विकसित बुद्धि के कुछ थोड़े-से विशिष्ट व्यक्ति ही होते हैं। कर्म और भक्ति ही सारे जनसमुदाय की संपत्ति होती है।”


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“साधना के जो तीन अवयव- कर्म, ज्ञान और भक्ति-कहे गए हैं, वे सब काल पाकर दोष ग्रस्त हो सकते हैं। ‘कर्म’ अर्थशून्य विधि-विधानों से निकम्मा हो सकता है, ‘ज्ञान’ रहस्य और गुह्य की भावना से पाखंडपूर्ण हो सकता है और ‘भक्ति’ इंद्रियोपभोग की वासना से कलुषित हो सकती है। भक्ति की निष्पत्ति श्रद्धा और प्रेम के योग से होती है। जहाँ श्रद्धा या पूज्यबुद्धि का अवयव- जिसका लगाव धर्म से होता है- छोड़कर केवल प्रेमलक्षणा भक्ति ली जाएगी वहाँ वह अवश्य विलासिता से ग्रस्त हो जाएगी।”

आचार्य शुक्ल ने रहस्यवाद के दो भेद किये हैं

1. साधनात्मक रहस्यवाद

2. भावात्मक रहस्यवाद

जिस रहस्यवाद का आधार योग है वह साधनात्मक रहस्यवाद है और जिसका आधार भक्ति या सूफी प्रेम सिद्धांत है वह भावात्मक रहस्यवाद है।

साधनात्मक रहस्यवाद में योग के अप्राकृतिक और जटिल आसन, कर्म-कांड, तप और कायाकष्ट, बरबस इन्द्रियों का दमन आदि हैं। इस प्रकार साधक मन अव्यक्त तथ्यों का साक्षात्कार तथा अनेक अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त करता हुआ भगवान के निकट पहुँचने का प्रयत्न करता है। तंत्र व रसायन भी साधनात्मक रहस्यवाद के अंतर्गत आते हैं पर उनका स्तर अपेक्षाकृत निम्न है।


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भावात्मक रहस्यवाद की कई श्रेणियाँ हैं जिनमें से किसी एक रहस्य भावना को आधार मानकर भक्त सरल एवं मधुर भाव से श्रद्धारत होता है। भक्त और साधक में अगाध विश्वास तथा आत्म समर्पण की भावना प्रबल रहती है। इस रहस्यवाद के अंतर्गत अद्वैत ब्रह्म की ही कल्पना होती है।

रसेश्वरदर्शन क्या है

शैव दर्शन प्रमुख शाखा ‘पशुपत’ के छः उपभागों में से एक है। यह दर्शन इस सिद्धांत पर आधारित है कि शरीर को अमर बनाए बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता तथा अमरत्व की प्राप्ति केवल ‘पारे’ (पारद) के माध्यम से संभव है। शैव दर्शन में रखेश्वर अर्थात् पारे को शिव का वीर्य व गंधक को पार्वती का रज माना गया है। इनके सृजनात्मक मिलन से ही अमर शरीर की उत्पत्ति संभव है। यह अद्वैत दर्शन का पोषक है। संवत् की दसवीं शताब्दी में ‘सोमानंद’ ने ‘शिवदृष्टि’ ग्रंथ में इसकी विशद व्याख्या की। यह प्रमुख छः दर्शनों में सम्मिलित नहीं है। (जायसी के पद्मावत में रसेश्वर दर्शन भी मिलता है।)

सर्वदर्शन संग्रह क्या है

यह माधवाचार्य विद्यारण्य द्वारा रचित ग्रंथ है। इसमें माधवाचार्य ने सोलह दर्शनों का वर्णन किया है, जिनमें ‘रसेश्वर दर्शन’ भी एक है। (माधवाचार्य, द्वैतवाद के प्रवर्तक मध्वाचार्य से भिन्न हैं।)

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