उपन्यास रेखा; व्याख्या, सार तथा प्रमुख कथन| Upnayash Rekha

रेखा उपन्यास; भगवतीचरण वर्मा ने रेखा उपन्यास में शरीर की भूख से पीड़ित एक आधुनिक, लेकिन एक ऐसी असहाय नारी की करुण कहानी कही है जो अपने अन्तर के संवषों में दुनिया के सभी सहारे गंवा बैठी।

भूख शरीर का ही गुण नहीं है, वह जीवन का गुण है। जिसे हम इच्छा अथवा अभिलाषा कहते हैं वह भूख का ही तो दूसरा रूप है। यह सारा कौतूहल, उत्सुकता, इच्छा, अभिलाषा, प्रेरणा- ये सब इसी भूख के रूपान्तर हैं। तो इस भूख से त्राण नहीं मिलने का। हाँ, मैं जीवन में संयम की महत्ता को स्वीकार करता हूँ। भूख स्वयं में विकृति नहीं है, उसकी उग्रता और भूख को वहन करनेवाले व्यक्ति का असंयम-ये दोनों मिलकर विकृतियों को जन्म देते हैं। इसलिए जीवन में संयम की नितान्त आवश्यकता है कि हम विकृतियों से बचे रह सकें।

भगवतीचरण वर्मा का जीवन परिचय

भगवतीचरण वर्मा का जन्म जन्म 30 अगस्त, 1903 को उन्नाव जिले (उ.प्र.) का शफीपुर गाँव में हुआ तथा इनका निधन , 5अक्तूबर, 1981

भगवतीचरण वर्मा ने इलाहाबाद से बी.ए., एल.एल.बी. की शिक्षा ली। प्रारम्भ में इन्होंने कविता-लेखन किया। फिर उपन्यासकार के नाते ये हिंदी साहित्य में विख्यात हुए। 1993 के करीब प्रतापगढ़ के राजा साहब भदरी के साथ रहे। 1936 के आसपास इन्होंने फिल्म कार्पोरेशन, कलकत्ता में कार्य किया। कुछ दिनों तक ‘विचार’ नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन-सम्पादन का कार्य भी किया। इसके बाद इन्होंने बम्बई में फिल्म-कथालेखन तथा दैनिक ‘नवजीवन’ का सम्पादन कार्य किया। इसके बाद आकाशवाणी के कई केन्द्रों में कार्य किया। बाद में, 1957 से लेकर मृत्यु-पर्यंत स्वतंत्र साहित्यकार के रूप में लेखन किया।

भगवतीचरण वर्मा की उपलब्धियां

इनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘चित्रलेखा’ पर दो बार फिल्म-निर्माण हुआ और ‘भूले-बिसरे चित्र’ पर इन्हें साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया। भारत सरकार द्वारा इन्हें प‌द्मभूषण से सम्मानित किया गया तथा राज्यसभा की मानद सदस्यता प्राप्त हुई ।

भगवतीचरण वर्मा की प्रकाशित पुस्तकें

उपन्यास ; अपने खिलौने, पतन, तीन वर्ष, चित्रलेखा, भूले-बिसरे चित्र, टेढ़े-मेढ़े रास्ते, सीधी सच्ची बातें, सामर्थ्य और सीमा, रेखा, वह फिर नहीं आई, सबहिं नचावत राम गोसाई, प्रश्न और मरीचिका, युवराज चूण्डा, धुप्पल

कहानी संग्रह ; प्रतिनिधि कहानियाँ, मेरी कहानियाँ, मोर्चाबंदी तथा सम्पूर्ण कहानियाँ

कविता-संग्रह ; मेरी कविताएँ, सविनय और एक नाराज कविता

नाटक ; मेरे नाटक, वसीयत

संस्मरण ; अतीत के गर्त से, कहि न जाय का कहिए

साहित्यालोचन ; साहित्य के सिद्धांत तथा रूप

भगवतीचरण वर्मा रचनावली (14 खंड)।

रेखा उपन्यास का सार तथा प्रमुख कथन

रेखा उपन्यास का सार;

भगवतीचरण वर्मा ने रेखा उपन्यास में शरीर की भूख से पीड़ित एक आधुनिक, लेकिन एक ऐसी असहाय नारी की करुण कहानी कही है जो अपने अन्तर के संवषों में दुनिया के सभी सहारे गंवा बैठी।

व्यक्ति के गुह्यतम मनोवैज्ञानिक चरित्र-चित्रण के लिए सिद्धहस्त प्रख्यात लेखक भगवतीचरण वर्मा ने इस उपन्यास में शरीर की भूख से पीड़ित एक आधुनिक, लेकिन एक ऐसी असहाय नारी की करुण कहानी कही है जो अपने अन्तर के संघर्षों में दुनिया के सब सहारे गँवा बैठी। रेखा ने श्रद्धातिरेक से अपनी उम्र से कहीं बड़े उस व्यक्ति से विवाह कर लिया जिसे वह अपनी आत्मा तो समर्पित कर सकी, लेकिन जिसके प्रति उसका शरीर निष्ठावान् नहीं रह सका।

शरीर के सतरंगी नागपाश और आत्मा के उत्तरदायी संयम के बीच हिलोरें खाती हुई रेखा एक दुर्घटना की तरह है, जिसके लिए एक ओर यदि उसका भावुक मन जिम्मेदार है, तो दूसरी ओर पुरुष की वह अक्षम्य ‘कमजोरी’ भी जिसे समाज ‘स्वाभाविक’ कहकर बचना चाहता है।

वस्तुतः रेखा जैसी युवती के बहाने आधुनिक भारतीय नारी की यह दारुण कथा पाठकों के मन को गहरे तक झकझोर जाती है।

रेखा उपन्यास के प्रमुख कथन;

प्रभाशंकर के सामने इक्कीस-बाईत तात की एक युवती थी, ताजे और प्रस्फुटित यौवन से भरपूर। हरिणी की-ती बड़ी-बड़ी आँखें, जिनमें कौतूहल की चमक थी, और जिनमें एक अजीब तरह के भोलेपन का उल्लास था। यह भोलापन उसकी आँखों में ही नहीं था, यह भोलापन उसके समत्त अस्तित्व में था। संगमरमर की, एक कुशल शिल्पी द्वारा तराशी, प्रतिमा को भाँति रेखा का शरीर, जिसमें जीवन की ऊष्मा थी, जिसमें गति का लचाव था। ताल-तात होड, और उनके भीतर मोती की भाँति दाँतों की पक्ति। हिम की-ची छटा खेल रही थी उसके जघरों पर। यह रेखा ममता की साकार प्रतिमा बनकर उनके जीवन में प्रवेश कर रही थी।

तुम नहीं समझ पाओगी रेखा कहा, “तुम ! यह समस्त ज्ञान, यह समस्त पांडित्य, यह समस्त ख्याति-यह सब एक छलना और भुलावा है, इधर कुछ दिनों में मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ। मनुष्य के जीवन की वास्तविक निधि है भावना। आज तक मुझे किसी ने अपना नहीं समझा, मैं किसी को अपना नहीं समझ सका; कितनी बड़ी विडम्बना है, जबकि हरेक आदमी मुझे भाग्यशाली समझता है, सफल समझता है !”

प्रभाशंकर को ऐसा अनुभव हुआ कि रेखा उनके और निकट आ गई है। उनके शरीर से रेखा का शरीर स्पर्श कर रहा है और उनका हाथ रेखा के सिर से हटकर उसके कन्धे पर आ गया है। रेखा का मुख झुका हुआ था। प्रभाशंकर ने रेखा का सिर ऊपर उठाया, रेखा की आँखों में आनन्द के आँसू छलक रहे थे। फिर प्रभाशंकर का मुख झुका, और अचानक प्रभाशंकर के अधर रेखा के अधारों से मिल गए।

एक सूनापन-जड़ता से भरी एक घुटन ! क्या यही जीवन है ?
यह एकरसता अब उसके प्राणों को अखरने लगी थी। यह एकरतता धीरे-धीरे रेखा में एक तरह की वितृष्णा का रूप ग्रहण कर रही थी।
निस्तब्ध और शान्त वातावरण ! अस्तित्व जैसे उसे काटने को दौड़ रहा था। यह सब क्यों और कैसे हो रहा है ? रेखा यह जानना चाहती थी, पर इसका उत्तर उसे नहीं मिल रहा था।

रेखा के मुख पर मुस्कराहट थी और उसकी आँखें झपी हुई थी। एक अत्तीम आह्लाद से उसका त्वर काँप रहा था, “अकेले में तुम मुझे ‘तुम’ कह सकते हो, लेकिन दुनिया के सामने नहीं, क्योंकि यह ‘तुम’ का सम्बन्ध घनिष्ठता का द्योतक है, और मैं विवाहित हूँ, किसी पर-पुरुष से मेरी घनिष्ठता नहीं होनी चाहिए। समाज के सामने यह घनिष्ठता का व्यवहार अनुचित होगा। है न ऐसा?”

“लेकिन तुम्हारे शरीर का भी तो कोई धर्म है, ज्ञान-तुम इसे क्यों भूल जाती हो ?”
“शरीर का धर्म ? रेखा, इतने सालों तक मैं अविवाहित रही हूँ-तुमसे उम्र में तीन-चार साल बड़ी हूँ। पर इसके पहले ती तुमने शरीर के धर्म की बात नहीं चलाई। क्या चीन-सम्बन्ध और वासना की तृप्ति ही शरीर का एकमात्र धर्म है। मैं इसे स्वीकार नहीं करती। बाल्यकाल और वृद्धावस्था-इस काल में ती यौन सम्बन्धों का प्रश्न ही नहीं आता। इस युवावस्था में ही काम-वासना का पागलपन रहता है मनुष्य के पास। ऐसी हालत में काम-वासना की तृप्ति को मैं शरीर का धर्म कैसे मान लूँ?”

आप ठीक कहते हैं, डॉक्टर ! मैं अपने आपे में नहीं हूँ, और इस अपने आपे को खोने के लिए ही तो मैं पार्टियों में जाती हूँ, दुनिया की हँसी-खुशी के पीछे दीवानी-सी दौड़ती हूँ। मैं कहती हूँ कि ज्ञान मेरी मजबूरी को समझती क्यों नहीं ?

तुम्हें संयत होना पड़ेगा रेखा, तुम बुद्धिमान हो। अपने को तोड़ सकना तुम्हारे लिए सम्भव नहीं है, और शायद उचित भी नहीं है। जब गलतियाँ करनी ही हैं तब उन गलतियों पर परदा डालने के लिए बुद्धि की शरण लेनी पड़ेगी।

भूख शरीर का ही गुण नहीं है, वह जीवन का गुण है। जिसे हम इच्छा अथवा अभिलाषा कहते हैं वह भूख का ही तो दूसरा रूप है। यह सारा कौतूहल, उत्सुकता, इच्छा, अभिलाषा, प्रेरणा- ये सब इसी भूख के रूपान्तर हैं। तो इस भूख से त्राण नहीं मिलने का। हाँ, मैं जीवन में संयम की महत्ता को स्वीकार करता हूँ। भूख स्वयं में विकृति नहीं है, उसकी उग्रता और भूख को वहन करनेवाले व्यक्ति का असंयम-ये दोनों मिलकर विकृतियों को जन्म देते हैं। इसलिए जीवन में संयम की नितान्त आवश्यकता है कि हम विकृतियों से बचे रह सकें।

खतरे से खेलना ही तो जिन्दगी है। लेकिन तुम मुझ पर भरोसा करो ज्ञान! किसी तरह की आँच न आने पाएगी मुझ पर। मैं उनके यहाँ मुश्किल से बंटा-आध घंटा बैठूंगी, फिर घर चली जाऊँगी।

“मैं समझता हूँ योगेन्द्र तुम्हारी भावना को, लेकिन तुम बुद्धिमान आदमी हो।” प्रभाशंकर की आवाज रेखा को सुनाई पड़ी, “तुम्हें यह नहीं भूल जाना चाहिए था कि निन्दा-भरी अफवाहों के पंख होते हैं। अगर इस पर सोचा होता तो शायद तुम अपने ऊपर से अपना अधिकार न खो बैठते । जो बात उस समय तक तुम दोनों तक सीमित थी वह तुम्हारे व्यवहार से सारे विश्वविद्यालय में फैल गई-तुमने जो कुछ कहा उससे रेखा की बदनामी फैलने में सहायता ही मिलेगी- मुझे सिर्फ इतना कहना है।”

शायद तुम ठीक कहते हो, डॉक्टर ! प्रेम का पागलपन छिपाए नहीं छिपता।” रेखा बोली। योगेन्द्रनाथ मुस्कराया, “पता नहीं कि पागलपन प्रेम का अनिवार्य भाग है। मैं तो समझता हूँ कि उग्रता भावना में उतनी नहीं है जितनी उसकी अतृप्ति में है। पागलपन वहीं होता है जहाँ अतृप्ति हो, जहाँ हम अपने प्रेम को पूर्ण रूप से प्राप्त न कर पाएँ।

यह मनुष्य कितना असहाय है, कितना निरीह है, कितना दयनीय है ! रेखा को ऐसा लगा कि प्रभाशंकर का सारा अहम, उनकी समस्त हिंसा-सब नियति के एक ही झटके में टूट गए हैं। उसके सामने एक असमर्थ और टूटा हुआ आदमी पड़ा था।

तेजी के साथ वह चली जा रही थी, और समय उससे भी अधिक तेजी के साथ

चल रहा था। उसमें और समय में दौड़ हो रही थी-समय, इसी समय का तो दूसरा नाम काल है। इस काल से कौन जीत सका है ? कश्मीरी गेट, लाल किला, दरियागंज- हर जगह बाधाएँ-अनगिनत बाधाएँ ! और काल की गति अबाध है, वह तो निरन्तर चलता रहता है।

वह पालम एयरोड्रम के पास पहुँच रही थी उसे दूर से एयरोड्रम की बीकन लाइट दिखाई दे रही थी, और उसने घड़ी देखी-ग्यारह बज रहे थे। उसने कार और तेज की। वह मना रही थी कि हवाई जहाज देर से छूटे यहाँ से-सामने एयरोड्रम का फाटक दीख रहा था। उसने कार रोकी-एक आवाज-कारवाली-बन्द हुई, दूसरी आवाज बहुत अधिक तेज, बहुत अधिक कर्कश, बहुत अधिक भयानक उसे सुनाई दी। तेजी से वह कार से उतरी और उसने देखा कि हवाई जहाज जमीन से ऊपर उठ रहा है-ऊपर उठ रहा है।

रेखा हँस रही थी, “मैं होश में हूँ, डॉक्टर ! आप सर्टीफिकेट दे दीजिएगा कल सुबह। आप जानते हैं, नियति ने मेरे साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ किया है, लेकिन मैं रेखा हूँ-रेखा ! सब मिट गए, लेकिन यह रेखा-मिट-मिटकर भी यह अमिट है।

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