वाख (ललद्यद) पाठ का सारांश | Class-IX, Chapter-8 (CBSE/NCERT)
वाख – ललद्यद
ललद्यद का काव्य भक्तिपूर्ण काव्य है । उन्होंने जाति, मत और संप्रदाय के भेदों से ऊपर उठकर ईश्वर की भक्ति करने की प्रेरणा दी ।
कवयित्री – परिचय
ललद्यद कश्मीर की लोकप्रिय कवयित्री हैं । उनके जीवन के बारे में प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती है । उनका जन्म सन् 1320 ई. के आसपास श्रीनगर के पास स्थित पाम्पोर के सिमपुरा गाँव में हुआ था । उन्हें लल्लेश्वरी, लला, ललयोगेश्वरी, ललारिफा आदि नामों से भी जाना जाता है । उनकी मृत्यु सन् 1391 ई. के आसपास मानी जाती है ।
रचनाएँ – वाख ।
काव्यगत विशेषताएँ – ललद्यद का काव्य अन्य संत कवियों की भाँति भक्तिपूर्ण है । उन्होंने जाति, मत और संप्रदाय के भेदों से ऊपर उठकर ईश्वर की भक्ति करने की प्रेरणा दी । उन्होंने धार्मिक पाखंडों का विरोध किया और मानव-प्रेम को सर्वोच्च माना । उन्होंने अपनी वाणी में जीवन की नश्वरता और प्रभु-भक्ति की अनिवार्यता पर जोर दिया । अन्य संत कवियों की तरह उनके काव्य में भी प्रभु – मिलन की गहरी तड़प है ।
भाषा-शैली – ललद्यद अपने वाखों के लिए प्रसिद्ध हैं । ‘वाख’ उनकी लोकप्रिय शैली है । उन्होंने चौदहवीं सदी में जिस सरल शैली में कविता लिखी वह आश्चर्यजनक है । वाख में उन्होंने अत्यंत सरल और अकृत्रिम भाषा का प्रयोग किया है ।
काव्यांश पर प्रश्नोत्तर
रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव ।
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।।
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।
जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे।।
शब्दार्थ : भवसागर = संसाररूपी सागर । कच्चे सकोरे = क्षणभंगुर जीवन । हूक = तड़प, वेदना ।
सारांश– कवयित्री के अनुसार – यह जीवन कच्चे धागे की डोर-सा नश्वर है, जिसके सहारे वह प्रभु-भक्ति की नाव को खे रही है । न जाने उसके देव उसकी पुकार कब सुनेंगे और उसका बेड़ा पार कर देंगे । यह जीवन मिट्टी के कच्चे सकोरे के समान क्षणभंगुर है। इसमें से आयुरूपी जल पल-पल टपक रहा है अर्थात् जीवन निरंतर बीतता जा रहा है और मृत्यु निकट आती जा रही है । प्रभु-मिलन के सब प्रयास बेकार हो रहे हैं। उसके हृदय में रह-रहकर एक तड़प उठती है कि वह कब अपने प्रभु से मिलेगी । अब वह अपने घर अर्थात् ईश्वर से मिलन को जाना चाहती है।
खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं, न खाकर बनेगा अहंकारी ।
सम खा तभी होगा समभावी, खुलेगी साँकल बंद द्वार की ।।
शब्दार्थ : अहंकारी = घमंडी । न खाकर – भोग पर संयम रखकर । सम = अंत:करण और बाह्य इंद्रियों पर संयम । समभावी = समानता की भावना रखने वाला । साँकल = कुंडी ।
सारांश–
कवयित्री कहती है- हे मनुष्य ! तू सांसारिक भोगों में लीन मत हो, क्योंकि भोगों से कुछ मिलने वाला नहीं । लेकिन भोगों का पूर्ण त्याग भी मत कर, इससे मन में अहंकार उत्पन्न होगा । भोग और त्याग में उचित संतुलन रख, इंद्रियों पर उचित संयम रख और मध्यम मार्ग अपनाकर चल । इसी सम मनोदशा में प्रभु-प्राप्ति के बंद द्वार खुलेंगे और तेरा प्रभु से मिलन होगा ।
यहाँ सम खाने का आशय है – भोगों पर उचित संयम रखना अर्थात् न तो भोग से दूर रहना, न ही उसमें लिप्त रहना; संयम रखते हुए भोग करना ।
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आई सीधी राह से, गई न सीधी राह ।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह ।
जेब टटोली, कौड़ी न पाई ।
माझी को दूँ, क्या उतराई ?
शब्दार्थ : सुषुम-सेतु = सुषुम्ना नाड़ी के मध्य (यह नाड़ी इड़ा और पिंगला नामक नाड़ियों के मध्य स्थित मान गई है ।) माझी = नाविक, पार उतारने वाला, यहाँ ईश्वर ।
सारांश
कवयित्री का कहना है कि उसने तो भवसागर से पार होने का सीधा (मध्यम) मार्ग ही चुना था । परन्तु इस मार्ग पर चलते-चलते वह हठयोग साधना के कठिन मार्ग पर चल पड़ी। सुषुम्ना आदि नाड़ियों को जागृत करने के फेर में उसका सारा जीवन बीत गया । वह उद्धार के लिए कुछ भी पूँजी नहीं कमा सकी । गुरु या ईश्वर को देने के लिए दिव्य गुणों की पूँजी भी उसके पास नहीं थी । अतः किस योग्यता के बल पर वह उद्धार की आशा करती ? यहाँ कवयित्री कहना चाहति है कि उसने अपना दिन अर्थात् अपना सारा जीवन व्यर्थ की हठयोग-साधना में बिता दिया ।
थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां ।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
वही है साहिब से पहचान ।
शब्दार्थ : थल = स्थान । शिव = ईश्वर । साहिब मालिक, ईश्वर
सारांश-
कवयित्री ने इस पद्यांश में ईश्वर को ‘शिव’ नाम से संबोधित किया है। शिव रूप में वह ईश्वर सृष्टि के कण-कण में निवास करता है। कवयित्री कहती है कि परमेश्वर (शिव) इस सृष्टि के कण-कण में व्याप्त हैं । इसलिए हिंदू और मुसलमान के बीच भेद करना ईश्वर का तिरस्कार है । ईश्वर के सच्चे भक्त और ज्ञानी को मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद-दृष्टि नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि ज्ञानी के ज्ञान की कसौटी आत्म-ज्ञान अर्थात् स्वयं को जानना है । जो अपने आपको जान लेता है वही ईश्वर को भी जान सकता है, क्योंकि परमात्मा आत्मा के रूप में सभी के भीतर विद्यमान है ।
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