बहिरंग आलोचना और अंतरंग आलोचना में अंतर | Bahirang Aalochana aur Antarang Aalochana
आलोचना (Aalochana) की परिभाषा
साहित्य क्षेत्र में ग्रंथ को पढ़कर उसके गुण और दोषों का विवेचन करना और उस संबंध में अपना मत प्रकट करना आलोचना है।
बहिरंग आलोचना
जिस आलोचना(Aalochana) के द्वारा किसी साहित्यकार पाठक सामाजिक मूल्य या सांस्कृतिक मूल्यों के सभी पक्षों, तथ्यों ,वास्तविकता, सत्य-असत्य पर विचार कर उसका पूरी तरह से परीक्षण किया जाता है उसे बहिरंग आलोचना कहते हैं। यह आलोचना शैलीविज्ञान का क्षेत्र है शैलीविज्ञान यह मानता है कि बहिरंग आलोचना का कार्य शुरू करने से पहले सर्वप्रथम हमें साहित्यिक कृति की समझ विकसित कर लेनी आवश्यक है। यह आलोचना के अन्य प्रकारों जैसे तुलनात्मक मार्क्सवादी, समाजशास्त्री, रसवादी आदि आलोचना के महत्वपूर्ण तो मानता है, लेकिन इसकी मान्यता है कि इन आलोचनाओं के मानदंड पर किसी कृति का विश्लेषण सही ढंग से नहीं पाता ।
अंतरंग आलोचना
शैलीविज्ञान के अंतर्गत जिस आलोचना के द्वारा किसी साहित्यिक कृति को एक स्वायत्त इकाई मानकर जब उसकी आंतरिक संरचना ( ध्वनि संयोजन, रूप विधि, शब्द संस्कार, आर्थी संरचना, वाक्य एवं प्रोक्ति संरचना) का अध्ययन किया जाता है अर्थात काव्य के अभिव्यक्ति पक्ष की खोज की जाती है उसे अंतरंग आलोचना कहते हैं। अंतरंग आलोचना के अध्ययन क्षेत्र में भाषेतर प्रतीक ,गत्यात्मकता प्रवाहमयता , भाव- भंगिमाए भी शामिल है।
वस्तुतः अपनी अंतरंग आलोचना के अंतर्गत शैलीविज्ञान किसी भी साहित्य को भाषिक प्रतीक के रूप में स्वीकार करता है क्योंकि प्रत्येक साहित्य के कथ्य एवं अभिव्यक्ति के एक ही करण के रूप में ही सिद्ध होता है भाषिक प्रतीक की अपनी प्रकृति एवं अर्थवत्ता के संदर्भ में यह कथा एवं अभिव्यक्ति एक दूसरे से इतने अभिन्न रूप से जुड़े होते हैं कि इनके विलगाव की कल्पना नहीं की जा सकती। प्रतीक के अभिव्यक्ति पक्ष के समक्ष आने के साथ ही उसका कथ्य पक्ष भी मानस पटल पर तुरंत उभरकर आता है।
जैसे- गाय शब्द के सुनते ही श्रोता के मन में उसका चित्र उभरकर सामने आता है अर्थात चार पैरों वाले जानवर का भाव आभिव्यक्ति पक्ष ‘गाय’ शब्द के साथ ही आता है।