उपन्यास सारा आकाश; व्याख्या, सार तथा प्रमुख कथन| Upnayash Sara Aakash

सारा आकाश’ प्रमुखतः निम्नमध्यवर्गीय युवक के अस्तित्व के संघर्ष की कहानी है, आशाओं, महत्त्वाकांक्षाओं और आर्थिक-सामाजिक, सांस्कारिक सीमाओं के बीच चलते द्वंद्व, हारने-थकने और कोई रास्ता निकालने की बेचैनी की कहानी है।

सारा आकाश की कहानी एक रूढ़िवादी निम्न मध्य वर्गी परिवार की कहानी है, जिसका नायक समर एक अवैवहारिक आदर्शवादी है। समर महत्वाकांक्षी युवक है, जो इंटर फाइनल कक्षा का छात्र है। वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक सक्रिय सदस्य भी है और नियमित रूप से शाखा में जाता है, तथा भारत के प्राचीन परंपराओं से बंधा है, सर पर छोटी रखता है और मंदिर भी जाता है ।
उसके परिवार की दशा अत्यंत दयनीय हैं उसके पिता ठाकुर साहब 25 रुपए महीने का पेंशन पाते हैं और बड़ा भाई धीरज 100 रुपए मासिक वेतन पर काम करता है ।

उपन्यास सारा आकाश ; लेखक राजेंद्र यादव

राजेंद्र यादव का जीवन परिचय;

राजेंद्र यादव का जन्म 28 अगस्त सन् 1929 को हुआ था और उनकी मृत्यु 28 अक्टूबर 2013 में हुई । राजेंद्र यादव हिंदी के प्रसिद्ध लेखक कहानीकार उपन्यासकार और आलोचक थे। नई कहानी के नाम से हिंदी साहित्य में उन्होंने एक नई विधा का सूत्रपात किया।

राजेंद्र यादव प्रकाशित पुस्तकें ;

कहानी संग्रह ; देवताओं की मूर्तियाँ, खेल-खिलौने, जहाँ लक्ष्मी कैद है, अभिमन्यु की आत्महत्या, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक, टूटना, ढोल और अपने पार, चौखटे तोड़ते त्रिकोण, वहाँ तक पहुँचने की दौड़, अनदेखे अनजाने पुल, हासिल और अन्य कहानियाँ, श्रेष्ठ कहानियाँ, प्रतिनिधि कहानियाँ

उपन्यास ; सारा आकाश, उखड़े हुए लोग, शह और मात, एक इंच मुस्कान (मन्नू भंडारी के साथ), मंत्र- विद्ध और कुलटा

कविता-संग्रह ; आवाज तेरी है

समीक्षा-निबन्ध- विमर्श ; कहानी : स्वरूप और संवेदना, प्रेमचन्द की विरासत, अठारह उपन्यास, काँटे की बात (बारह खंड), कहानी अनुभव और अभिव्यक्ति, उपन्यास : स्वरूप और संवेदना
आदमी की निगाह में औरत, वे देवता नहीं हैं, एक दुनिया : समानान्तर, कथा जगत की बागी मुस्लिम औरतें, वक्त है एक ब्रेक का, औरत उत्तरकथा, पितृसत्ता के नए रूप, पच्चीस बरस : पच्चीस कहानियाँ, मुबारक पहला कदम (सम्पादन); औरों के बहाने (व्यक्ति-चित्र); मुड़-मुड़ के देखता हूँ (आत्मकथा); राजेन्द्र यादव रचनावली (15 खंड)।

राजेंद्र यादव की उपलब्धियां

राजेंद्र यादव को हिंदी अकादमी दिल्ली द्वारा उनके समग्र लेखन के लिए 2003-2004 का सर्वोच्च सम्मान प्रदान किया गया था।

प्रेमचन्द द्वारा स्थापित कथा-मासिक ‘हंस’ के अगस्त, 1986 से 27 अक्टूबर, 2013 तक सम्पादन।

चेखव, तुर्गनेव, कामू आदि लेखकों की कई कालजयी कृतियों का अनुवाद किया।

सारा आकाश उपन्यास का सार;

सारा आकाश प्रमुखता निम्न मध्यवर्गी युवक की अस्तित्व से संघर्ष की कहानी है आशाओं महत्वाकांक्षाओं और आर्थिक सामाजिक सांसारिक सीमाओं के बीच द्वंद्व हारने थकने और कोई रास्ता ना निकाल पाने की बेचैनी की कहानी है।

सारा आकाश शीर्षक प्रतीकात्मक है लेखक के शब्दों में सारा आकाश की ट्रेजेडी किसी समय या व्यक्ति विशेष की ट्रेजरी नहीं बल्कि खुद चुनाव न कर सकने कि दो अपरिचित व्यक्तियों को एक स्थिति में झोंक कर भाग्य के सहारे छोड़ देने की ट्रेजेडी है।

संयुक्त परिवार में जब तक अपने जीवन के फैसले लेने की स्वंतत्रता नहीं होगी तब तक यह ट्रेजेडी भारतीय परिवार में या भारतीय समाज में होती ही रहेगी ।

सारा आकाश की कहानी एक रूढ़िवादी निम्न मध्य वर्गी परिवार की कहानी है, जिसका नायक समर एक अवैवहारिक आदर्शवादी है। समर महत्वाकांक्षी युवक है, जो इंटर फाइनल कक्षा का छात्र है। वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक सक्रिय सदस्य भी है और नियमित रूप से शाखा में जाता है, तथा भारत के प्राचीन परंपराओं से बंधा है, सर पर छोटी रखता है और मंदिर भी जाता है ।
उसके परिवार की दशा अत्यंत दयनीय हैं उसके पिता ठाकुर साहब 25 रुपए महीने का पेंशन पाते हैं और बड़ा भाई धीरज 100 रुपए मासिक वेतन पर काम करता है ।

परिवार में कुल मिलाकर 8 सदस्य हैं, लेकिन समर की शादी और उसके भाई की एक बच्ची होने के बाद वह 10 परिवार हो जाते हैं, जिनके खर्च इतने रुपए में नहीं चल पाता है । घर की आर्थिक व्यवस्था पहले ही ख़राब थी अब और बुरी हो जाती है।

घर में आर्थिक व्यवस्था खराब होने की वजह से हर रोज घर का वातावरण कलह भरा बना रहता है ।
समर जो कि इस उपन्यास का नायक है वह शादी नहीं करना चाहता है, वह पढ़ना चाहता और एक महान व्यक्ति बनना चाहता है । लेकिन जब प्रभा से उसकी शादी होती है, तो वह पिता के डर से शादी कर तो लेता है, लेकिन वह खुद के लिए कहता है न जाने किस नरक में फस गया हूं और अपने महान बनने के सपने को घुटता हुआ पता है।

वह काफी समय तक प्रभा को स्वीकार नहीं कर पता है । वह सोचता रहता है, अपने भविष्य की कल्पनाओं में खोया रहता है और कहता है कि मैं किस तरह से अब एक आदर्शवादी व्यक्ति बन पाऊंगा क्योंकि उसके आदर्श राम, कृष्ण , बुद्ध जैसे उच्च व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने परिवार तक को त्याग दिया था।

वह समझ नहीं पता किस तरीके से वह पत्नी के साथ रहेगा, कैसे पत्नी के साथ रहते हुए अपना पढ़ाई करेगा और अपना एक आदर्श व्यक्तित्व बनाएगा लेकिन परिवार में हर रोज की कलह चिक चिक के साथ ही उसका मन हमेशा हताश और उदास रहता है। इंटर का परीक्षा खत्म होते ही उसके ऊपर कमाने और परिवार की मदद करने के लिए दबाव बनाया जाता है। उसे हर छोटी छोटी बातों के लिए तना दिया जाता है ।

हालांकि समर की पत्नी प्रभा उसकी हताशा में सहानुभूति देती है ,कहती है मुश्किल दिन है गुजर जायेगें।
प्रभा एक पढ़ी-लिखी और सुंदर स्त्री है, लेकिन इस उपन्यास के दौरान ऐसा लगता है की उसका पढ़ना लिखना ही इस समाज के लिए सबसे बड़ा अवगुण बन गया है, क्योंकि उसके परिवार में जब भी उससे कोई छोटी गलती भी होती तो उसके पढ़ने लिखने को ही उसका अवगुण बनाकर उसे खूब खरी खोटी सुनाया जाता था ।
शादी के काफी समय तक समर और प्रभा में कोई बातचीत नहीं होती है और समर प्रभा को नीचा दिखाने के लिए और तने देने के लिए नए-नए तरीके ढूंढता रहता है।
समर का व्यक्तित्व ऐसे व्यक्ति का है जो अपने ही अंदर-अंदर कुढ़ता रहता है और न जाने कैसी-कैसी बातों का ऊंचा पहाड़ बनाता रहता है ,लेकिन जब वह प्रभाव से बात करना शुरू कर देता है तो उनके बीच आपस में प्रेम बढ़ता ही जाता है। इसके बाद छोटी छोटी बातों को लेकर परिवार के लोग समर को पत्नी का गुलाम कहने लगते है।

उपन्यास में एक पात्र शिरीष नाम का व्यक्ति है जो कि इस समाज में पल रहे कुरीतियों का खंडन करता है। शिरीष के व्यक्तित्व को हम कह सकते हैं कि वह लेखक का ही एक ऐसा पक्ष है, जो समाज के उन बातों का खंडन करता है, जिसे लेखक पसंद नहीं करता, जैसे सती प्रथा, संघ व्यवस्था, हिन्दू धर्मगाथा, धार्मिक कर्मकांड और संन्यास। इस उपन्यास में संयुक्त परिवार को व्यक्ति के विकास में बाधा बताया गया है , खासतौर पर जब परिवार की आर्थिक व्यवस्था खराब हो ।

उपन्यास के अंत में जब हम पहुंचते हैं तो देखते हैं, समर का व्यक्तित्व ऐसा हो चुका है कि वह मरना भी चाहता है और मर भी नहीं पाता । वह खुद को नितांत अकेला पाता है ।
इस उपन्यास की एक और महत्वपूर्ण स्त्री पात्र मुन्नी है, जिसकी मृत्यु हो जाती है या कहे की उसे ससुराल वाले मिलकर मार डालते हैं। यह सब सुनकर समर हताश हो जाता है और रोज-रोज के कलह से, अपने आर्थिक व्यवस्था से हताश और परेशान हो कर वह ट्रेन के नीचे आकर मारना चाहता है , लेकिन जब वह मरने जाता है तो उसे प्रभाव का ख्याल हुआ आता है और वह मर भी नहीं पता और आकाश की तरफ देखता रहता है और उसे इस समय सारा आकाश डगमग डगमग करता हुआ लगता है और वह समझ ही नहीं पता कि क्या करें और क्या ना करें और यहीं उपन्यास समाप्त हो जाता है।

उपन्यास सारा आकाश से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण कथन।

लेखक राजेंद यादव का कथन

मेरे लिए यह ( सारा आकाश)तीसरा उपन्यास भी है और पहला भी इसकी मूल कहानी को जब मैं रफ रूप में लिखा रहा था तो नाम दिया था प्रेत बोलते हैं उसे कहानी ने प्रेस के दर्शन भी किया और पुस्तक का रूप भी पाया कुछ स्नेहियों ने उसे जाना और पढ़ा भी लेकिन वास्तविकता यह है की पुस्तक बाजार में नहीं आई ना आएगी अब लगभग 10 साल बाद मैं जब इस कहानी को अलग परिवेश और प्रभाव देने के लिए एकदम नए सिरे से लिख डाला और नए अर्थ और अभिप्राय दिए हैं तो नाम भी नया ही दे दिया शायद या नया रूप और आम ही अधिक सही है और व्यापक है।
‘सारा आकाश’ एक कृति के रूप में आजाद भारत की युवा पीढ़ी के वर्तमान की त्रासदी और भविष्य का नक्शा हैं। आश्वासन तो यह है कि सम्पूर्ण दुनिया और सारा आकाश तुम्हारे सामने खुला है-सिर्फ तुम्हारे भीतर इसे जीतने और नापने का संकल्प हो-हाथ-पैरों में शक्ति हो… मगर असलियत यह है कि हर पाँव में बेड़ियाँ हैं और हर दरवाजा बन्द है। युवा बेचैनी को दिखाई नहीं देता कि किधर जाए और क्या करे। इसी में टूटता है उसका तन, मन और भविष्य का सपना। फिर वह क्या करे-पलायन, आत्महत्या या आत्मसमर्पण?

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का कथन

“…उपन्यास अत्यन्त रोचक है और जगह-जगह वर्णन इतना मार्मिक हो उठा है कि कलेजे को पकड़ लेता है… आपने निम्न मध्यमवर्ग की एक ऐसी वेदना का इतिहास लिखा है जिसे हममें से अधिक लोगों ने भुगता होगा… यह आग कितनी भयानक है और किस बेबसी से हम उसे पाले जा रहे हैं। कानून, संसद और योजना सब बेकार है, सब असमर्थ है।… आपने एक ऐसी समस्या के मुख पर से परदा खींच दिया जो सर्वानुभूत होने पर भी अधिकतर उपेक्षित चली आ रही है। …किन्तु ‘सारा आकाश’ से भी व्यंजना आपने खूब निकाली। मैं पंक्तियों को वापस लेने से इनकार करता हूँ। वहुत कुछ फेंककर अब हलका होने लगा हूँ। मुझ बीमार पर तो अव बोझ मत डालिए।” – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

अज्ञेय का कथन

“इस ज़ोरदार और प्रभावशाली कृति के लिए बहुत-बहुत बधाई ! जिस वर्ग के और जिन लोगों के चित्र आपने खीचे हैं, उसके और उनके प्रति सचाई और अनासक्त ढंग की सहानुभूति का आपने अच्छा निर्वाह किया है…इस ज़ोरदार और स्मरणीय कृति रचने में मेरी बधाई स्वीकार कीजिए।” -अज्ञेय

सारा आकाश उपन्यास के प्रमुख कथन।

अपना सुख, अपना स्वार्थ, अपना संतोष, बस यही हमारे घर की रीति है। दूसरा मरे, पिसे उनकी बला से। न दूसरे की इच्छा है, न जान। बड़े-बूढ़े समझते हैं, दुनिया जैसे उनके ज़माने में थी, वैसी ही चलनी चाहिए, नहीं तो रसातल में चली जाएगी। ‘अजी साहब, लड़कों की भी अपनी कोई इच्छा होती है ? समझते ही क्या हैं ? हमने दुनिया देखी है।’ और सच बात यह है कि नाक के आगे उन्हें कुछ दीखता ही नहीं है। लड़के को इससे ज्यादा और चाहिए ही क्या कि उसकी शादी हो जाए, बहू आ जाए, बच्चे हों, वह क्लर्क बाबू हो जाए और हमारे बाद हुक्के की नै सँभाल ले…! हाय मेरी वे सारी महत्त्वाकांक्षाएँ, कुछ बनकर दिखलाने के सपने, अब यों ही घुट-घुटकर मर जाएँगे-रात-रात भर की नींद और खून दे-देकर पाले हुए वे सारे भविष्य के सपने अब दम तोड़ देंगे।

कोई ऐसा नहीं जो मेरी थकान और पसीने को सांत्वना के शब्दों से समेट ले, मेरी निराशा के आँसुओं को पोंछकर कहे… ‘चलो, मैं तो तुम्हारे साथ हूँ…’ पता नहीं किस तरह की लड़की को मेरे गले मढ़ दिया गया है ? कैसे चलेगी जिंदगी…? फिर लगा, जैसे कोई अज्ञात शक्ति मेरे शरीर के कण-कण से पानी निचोड़-निचोड़कर आँखों की राह उलीचे दे रही है।

दूर से पहाड़ी जैसी बड़ी और भयंकर दिखाई पड़नेवाली मुसीबत चाहे जितनी विशाल और विराट क्यों न दिखाई दे, निकट आने पर उसमें कहीं न कहीं पगडंडियाँ और रास्ते निकल ही आते हैं।

औरत को जब तक दबाकर नहीं रखा जाता, हाथ नहीं आती। और जहाँ पहले से ही गुमान बढ़े हों वहाँ तो फिर कहना ही क्या बंदर है, हमारे बाबा कहा करते थे। इतना भी मुँह है ! औरत तो लकड़ी का न लगाए कि आदमी को आगा-पीछा कुछ दिखाई न दे। चाहे जितनी पढ़ लो, चाहे जितनी सुरग की परी बन लो, काम तो वही करना पड़ेगा। आदमी को काम प्यारा होता है, चाम नहीं।

मगर जैसे ही उनकी समझ में आया कि प्रभा केवल घूम जाती है, परदा नहीं करती, तो उन्होंने जाने किस बात पर अम्मा से कहा था, “फिर बेटी और बहू में फर्क ही क्या रह गया ? बेटी भी मुँह खोले बाल बखेरे घूमती है और बहू को भी चिंता नहीं है कि पल्ला किधर जा रहा है?” और इस पर शुरू में खूब हंगामा मचा। भाभी ने ताने कसे सो तो कसे ही, अम्मा ने भी माला के दाने गिनना छोड़कर झुंझला-झुंझलाकर कहा, “बहू, तुम् यहाँ परदे का कायदा नहीं है तो न सही, लेकिन इस घर की रीत तो गये। अरे हमसे न करो तो मत करो, लेकिन बड़ों से कुछ तो हया-शरम हो भी क्या अंधेर, न हमने देखा न सुना। सारी बिरादरी में चर्चा है। जो करम में थूकै।

प्रभा का चेहरा मैंने सदैव ही अपरिवर्तनीय और ऐसा भावहीन देखा मानो किसी ने पत्थर का बना दिया हो। हमेशा गंभीर और कुछ हद तक मनहूस ! उसकी आँखों के आसपास काले गड्ढे बने रहते और जाड़े के मारे होंठ पपड़ाए रहते। एड़ियों से मैल भरी बिवाइयाँ झाँका करतीं।

कड़वाहट से उन साहब ने कहा था- “दिन-रात गला फाड़कर चीखनेवाले इन नेताओं को शरम भी तो नहीं आती। अपने वनमानुषों-जैसे मुँह को गंभीर बना-बनाकर कहेंगे कि अब हम स्वतंत्र हैं। देश के नव-निर्माण के लिए हमें अच्छे से अच्छे इंजीनियर चाहिए, डॉक्टर चाहिए, मशीन चलानेवाले लोग चाहिए, वैज्ञानिक चाहिए। तुम्हें किसी की ज़रूरत नहीं है, तुम्हें अपने बँगलों-कोठियों की क्यारियाँ हरी-भरी रखने को माली चाहिए और गाड़ियाँ चलाने के लिए ड्राइवर चाहिए। यह चाहिए… वह चाहिए, चाहिए तुम्हें पत्थर !”
उनका गुस्सा मुझे अपना घाव सहलाता लगा। ठीक ही तो है, जिनकी इच्छा आगे पढ़ने की है, कुछ बनने की है, उनके पास न साधन हैं, न सुविधाएँ। और तुम्हें जादू के ज़ोर से बने हुए डॉक्टरों और इंजीनियरों, वैज्ञानिकों और टैक्नीशियनों-सभी की ज़रूरत है।

मजबूरी में घुल-घुल और घुट-घुटकर मरने को भारतीय नारी की सहनशीलता का नाम दे-देकर मत पूजिए।

भाई मेरे, यह पलायन और पराजय का दर्शन ही से आपको यहाँ ले आया है। बेटा बाप को माया समग्ने और बाप बेटे को माया को-इससे ज्यादा अहसानफरामोशी यानी एक-दूसरे का अपमान और क्या होगा ? जिस औरत ने आपको जन्म दिया है, उसे आप नरक का द्वार करें और जिसे आप अपने बेटे की मां बनाने जा रहे हैं उसे कुंभीपाक बताएँ, यह हद दरजे की कृतघ्नता है। ब्रह्म-ज्ञान न हो गया, शराब की बोतल हो गई कि पिया और औंधे पड़े हैं। भाड़ में जाए घर, और कुएँ में जाएँ घरवाले।

आज की आर्थिक स्थिति में संयुक्त परिवार चल नहीं सकता। अगर चलेगा भी तो ऊपर से देखने में चाहे जो हो, लेकिन अंदर से उसमें छोटे-छोटे परिवारों की कई इकाइयाँ बन जाएँगी। आप सोच नहीं सकते कि यह ज़रा-सी भावुकता कितने भयंकर परिणामों को जन्म दे रही है। रात-दिन हैरान-परेशान रहेंगे, लड़ेंगे-मरेंगे, सब होगा, लेकिन रहेंगे साथ ही, इज़्ज़त का सवाल, अलग चूल्हा न जलने की हठ, ऊपरी भावुकता के पीछे स्वार्थ की खींच-तान, इन सबके कारण कितनी हत्याएँ-आत्महत्याएँ रोज़ होती हैं। इस बात को जाने भी दीजिए तो भी एक इसका परिणाम ही इतना भयंकर है कि उसकी किसी से तुलना नहीं हो सकती।

मानसिकताएँ तो स्थितियाँ बदलने पर ही बदलती हैं।

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