RBSC board class 10 Hindi chapter 4 देव ; पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या।

RBSC board class 10 Hindi chapter 4 देव (kavi dev) ; देव (kavi dev) के पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या। कवि के रूप में देव सौन्दर्य और प्रेम के चितेरे कवि हैं।

कवि देव का जीवन परिचय ( kavi dev ka Jivan Parichye)

कवि देव का जन्म संवत् 1730 (1673 ई.) में उत्तर प्रदेश के इटावा नगर में हुआ था। इनके पिता का नाम कुछ लोग बिहारीलाल दूबे मानते हैं। देव के गुरु वृंदावन निवासी संत हितहरिवंश माने जाते हैं। देव अन्य रीतिकालीन कवियों की भाँति दरबारी कवि थे। उन्होंने अनेक राजाओं और सम्पन्न लोगों के यहाँ समय बिताया था। इनको दर्शन शास्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेद और तंत्र आदि विषयों का भी ज्ञान था। कवि देव की मृत्यु संवत् 1824 (1767 ई.) के आस-पास मानी जाती है।

कवि देव का साहित्यिक परिचय

देव ने अन्य रीतिकालीन कवियों की भाँति काव्य रीति और काव्य रचना दोनों क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया।कवि के रूप में देव सौन्दर्य और प्रेम के चितेरे हैं। इनको काव्य सरस और भावोत्तेजक है। रूपवर्णन, मिलन, विरह आदि का हृदयस्पर्शी शब्दचित्र देव ने अंकित किया है। इसके साथ ही उन्होंने संस्कृत शब्दयुक्त सरस और सशक्त ब्रजभाषा का प्रयोग भी किया है। इनकी कविता में अनुप्रास, अक्षरमित्रता और चमत्कार प्रदर्शन भी मिलता है। देव आचार्यत्व और कवित्व दोनों ही दृ ष्टियों से रीतिकाल के एक प्रमुख कवि माने जाते हैं।

रचनाएँ-(kavi dev ki rachna)

माना जाता है कि देव ने लगभग 62 ग्रन्थों की रचना की थी। अब केवल 15 ग्रन्थ ही मिलते हैं। ये ग्रन्थ हैं भावविलास, अष्टयाम, भवानीविलास, कुशलविलास, प्रेमतरंग, जातिविलास, देवचरित्र, रसविलास, प्रेमचन्द्रिका, शब्दरसायन, सुजानविनोद, सुखसागर तरंग, राग रत्नाकर, देवशतक तथा देवमायाप्रपंच।

देव के पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या।

(1) पाँरन नूपुर मंजु बजें, कटि-किंकिनि में धुनि की मधुराई।

पाँरन नूपुर मंजु बजें, कटि-किंकिनि में धुनि की मधुराई।
साँवरे अंग लसै पट पीत, हिये हुलसै बन-माल सुहाई ॥
माथे किरीट, बड़े दूग चंचल, मंद हँसी मुख चंद जुन्हाई।
जै जग-मन्दिर-दीपक सुंदर, श्री ब्रज-दूलह देव-सहाई ॥

सन्दर्भ तथा प्रसंग-

प्रस्तुत छन्द हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित कवि देव के छन्दों से लिया गया है। इस छन्द में कवि श्रीकृष्ण के दूल्हे की भाँति सजे-धजे सुन्दर रूप का शब्द-चित्र प्रस्तुत कर रहा है।

व्याख्या-

कवि देव कहते हैं-जिनके चरणों में सुन्दर नूपुर बज रहे हैं, जिनकी कमर में पहनी हुई कौंधनी का मधुर शब्द हो रहा है, जिनके साँवले शरीर पर पीताम्बर शोभा पा रहा है तथा कंठ में वनफूलों की सुहावनी माला पड़ी हुई है, जिनके मस्तक पर मुकुट सुशोभित है, जिनके नेत्र बड़े चंचल हैं और जिनकी मंद-मंद हँसी, मुखरूपी चन्द्रमा की चाँदनी जैसी प्रतीत हो रही है, ऐसे श्रीकृष्ण जगतरूपी भव्य भवन को अपने दिव्य सौन्दर्य से दीपक के समान प्रकाशित कर रहे हैं। उनकी सदा जय हो। ब्रजभूमि के दूलह जै वस्त्राभूषणों से सजे-धजे श्रीकृष्ण सदा सबके सहायक हों, सब पर कृपा करें।

विशेष-
ब्रजभाषा का सरस, परिमार्जित, प्रवाहपूर्ण गेय स्वरूप प्रस्तुत हुआ है।
श्रीकृष्ण के दूलह जैसे वस्त्राभूषणों से सुसज्जित सुन्दर स्वरूप का शब्दचित्र साकार किया गया है।
‘कटि-किंकिनि’, ‘पट पीत’, ‘हिए हुलसै’, में अनुप्रास अलंकार है। ‘मंद हँसी मुख चंद जुन्हाई’ में उपमा तथा ‘मुख चन्द’ में रूपक अलंकार है।
‘जंग-मंदिर-दीपक’ में कवि की नई कल्पना का परिचय मिल रहा है।

2. धार में धाय धंसी निरधार हवै, जाय फँसी, उकसीं न अबेरी ॥

धार में धाय धंसी निरधार हवै, जाय फँसी, उकसीं न अबेरी ॥
री अंगराय गिरीं गहरी, गहि, फेरे फिरीं औ घिरी नहीं घेरी ॥
देव कछु अपनो बस ना, रस-लालच लाल चितै भयीं चेरी।
बेगि ही बूड़ि गयी पखियाँ, अखियाँ मधु की मखियाँ भयीं मेरी ॥

सन्दर्भ तथा प्रसंग-

प्रस्तुत छन्द हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित कवि देव के छन्दों से लिया गया है। इस छन्द में कवि ने श्रीकृष्ण के प्रेमरस में डूबी गोपी का एक मधुमक्खी के रूप में वर्णन किया है जो शहद में डूबने पर फिर निकल नहीं पाती है।

व्याख्या-

श्रीकृष्ण के प्रेम-रस में पगी अपनी आँखों की दशा का वर्णन करते हुए कोई गोपी या नायिका कह रही है कि उसकी आँखें बिना सोचे-समझे प्रिय कृष्ण के प्रेम-रस की धारा में शीघ्रता से प्रवेश कर गईं और प्रिय कृष्ण के प्रेम-प्रवाह में प्रवाहित होने लगीं। उस रस धारा में वे ऐसी फंस गईं कि निकालने का यत्न करने पर भी नहीं निकल पाईं। अरी सखि! निकलना तो दूर वे तो अँगड़ाई लेकर उस रस धारा में और गहरी जा गिरीं, आनन्द-विभोर होकर प्रेम में और अधिक मग्न हो गईं। मैंने इन आँखों को पकड़कर लौटाना चाहा परन्तु वे नहीं लौटीं। इन्हें घेरकर रोकना चाहा पर ये नहीं रुकीं। अब इन आँखों पर मेरा कोई वश नहीं रह गया है। ये तो प्रिय कृष्ण के रूप रस को चखने के लालच में, उन्हें देखते ही उनकी दासी जैसी हो गई हैं। जैसे शहद में पंखों के डूब जाने पर मधुमक्खी उड़कर बाहर निकलने में असमर्थ हो जाती है, उसी प्रकार मेरी आँखें भी श्रीकृष्ण के मनमोहक स्वरूप के मधु में फंसकर लौटने में असमर्थ हो गई हैं। भाव यह है कि अब गोपी का कृष्ण के प्रेम-पाश से मुक्त हो पाना सम्भव नहीं रहा।

विशेष-

सरस, प्रवाहपूर्ण और शब्द चयन के चमत्कार से युक्त ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

हृदयस्पर्शी शैली में गोपिका के मनोभावों को व्यक्त कराया गया है।

धार में धाय हँसी निरधार हवै,” अंगराय गिरीं गहरी गहि, फेरे फिरीं उरौ घिरीं नहीं घेरी’, तथा ‘बेगि ही बूड़ि….. भयीं मेरी’ में अनुप्रास की सरस छटा है।’ अखियाँ मधु की मखियाँ भय मेरी’ में उपमा अलंकार है। पूरे छंद में अंखियों को ‘मधु की मखियाँ’ सिद्ध करने से सांगरूपक अलंकार भी है।

संयोग श्रृंगार रस की अनूठी योजना है।

3. झहरि झहरि झीनी बूंद हैं परति मानो,

झहरि झहरि झीनी बूंद हैं परति मानो,
घहरि घहरि घटा घेरी है गगन में।
आनि कह्यो स्याम मो सों, चलौ झूलिबे को आजु,
फूली ना समानी, भई ऐसी हौं मगन में॥
चाहति उठयोई, उड़ि गई सो निगोड़ी नींद,
सोय गए भाग मेरे जागि वा जगन में।
आँखि खोलि देख तो, घन है न घनस्याम,।
वेई छायी बूंदें मेरे, आँसु है गन में ॥

सन्दर्भ तथा प्रसंग-

प्रस्तुत छंद हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि देव के छंदों में से लिया गया है। इस छंद में एक गोपी अपनी सखी को कृष्ण मिलन के सपने के बारे में बता रही है जो सपना ही बनकर रह गया।

व्याख्या-

कोई गोपी अपनी अंतरंग सखी को अपने सपने के बारे में बताती हुई कहती है-सखि! रात को मैंने देखा कि वर्षा ऋतु है। झकोरों के साथ नन्हीं-नन्हीं बूंदें बरस रही हैं और आकाश में घुमड़-घुमड़कर काली घटाएँ घिर रही हैं। ऐसे सुहावनेह श्य के बीच मेरे परम प्रिय कृष्ण ने आकर मुझसे कहा-‘चलो आज झूलने चलते हैं। यह सुनकर मैं फूली नहीं समाई। कृष्ण का यह प्रस्ताव सुनकर मैं भाव-विभोर हो गई। मैं उनके साथ चलने को उठ ही रही थी कि मेरी अभागी नींद ही खुल गई। उस जाग जाने ने तो जैसे मेरे भाग्य को ही सुला दिया। मैं अभागी बन गई। आँखें खोलकर जैसे ही मैंने देखा, तो वहाँ न कहीं बादल थे न प्रिय कृष्ण। सपने में झरती बूंदें ही अब मेरे नेत्रों से आँसू बनकर झर रही थीं। मैं अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहा रही थी।

विशेष-

भाषा भावानुकूल, सरस शब्दावली युक्त तथा प्रवाहपूर्ण है।

भावात्मक शैली में कवि ने हृदय को छू लेने वाला शब्द-चित्र अंकित किया है।

‘झहरि झहरि झीनी’ और ‘घहरि-घहरि’ में अनुप्रास के साथ पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है ‘घहरि घहरि घटा होरी’ में भी अनुप्रास है। ‘उड़ि गई सो निगोड़ी नींद’ में मानवीकरण है, ‘सोय गए भाग और मेरे जागि वा जगन में विरोधाभास अलंकार है।

‘फूली ना समानी’, ‘हौं मगन में’ मुहावरों के प्रयोग से भाव प्रकाशन को बल मिल रहा है।

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