भवानी प्रसाद मिश्र की कविता सन्नाटा | Kavita Sannata | Bhavani Parshad Mishr

आज हम पढ़ रहे है लेखक भवानी प्रसाद मिश्र की प्रसिद्ध कविता “सन्नाटा” का मूल पाठ , व्याख्या तथा सारांश| कविता “सन्नाटा” ; भवानी प्रसाद मिश्र

कविता “सन्नाटा” की व्याख्या एवं सारांश

भवानी प्रसाद मिश्र ने सन्नाटा कविता में सन्नाटे की प्रवृत्ति को बताने की कोशिश की है, इस कविता में कवि ने राजा रानी की एक छोटी सी कहानी के जरिए सन्नाटे की प्रवृत्ति को बताया है ।
कवि कहते हैं कि कुछ लोग सन्नाटे को शांति का नाम देते हैं तो कुछ चुपी का पर सन्नाटे के अंदर भी एक प्रकार का शोर होता है जो हमें समझ नहीं आता है ।
इस कविता में कवि उस अंतरिक शोर की बात करते है, जो हमें सुनाई नहीं देता पर हमें अन्दर तक परेशान कर देता है । इस कविता में सन्नाटा हमारे मन के अंतरिक बेचैनी को बताता है।

कविता “सन्नाटा” ; मूल पाठ

तो पहले अपना नाम बता दूं तुमको,
फिर चुपके-चुपके धाम बता दूं तुमको
तुम चौक नहीं पड़ना, यदि धीमे-धीमे
मैं अपना कोई काम बता दूं तुमको ।

कुछ लोग भ्रांतिवश मुझे शांति कहते हैं,
कुछ निस्तब्ध बताते हैं, कुछ चुप रहते हैं
मैं शांत नहीं निस्तब्ध नहीं, फिर क्या हूं
मैं मौन नहीं हूं, मुझ में स्वर बहते हैं।

कभी-कभी कुछ मुझमें चल जाता है

कभी-कभी कुछ मुझमें जल जाता है
जो चलता है, वह शायद है मेंढक हो,
वह जुगनू है, जो तुमको छल जाता है ।

मैं सन्नाटा हूं, फिर भी बोल रहा हूं,
मैं शांत बहुत हूं, फिर भी डोल रहा हूं
ये सर सर यह खड़ खड़ सब मेरी है
है यह रहस्य मैं इसको खोल रहा हूं ।

मैं सूने में रहता हूं, ऐसा सूना
जहां घास उगा रहता है उना ऊना
और झाड़ कुछ इमली के, पीपल के
अंधकार जिनसे होता है दूना।

तुम देख रहे हो मुझको, जहां खड़ा हूं
तुम देख रहे हो मुझको, जहां पड़ा हूं
मैं ऐसे ही खंडहर चुनता फिरता हूं
मैं ऐसी ही जगह में पला, बढ़ा हूं।

हां, यहां किले की दीवारों के ऊपर,
नीचे तलघर में या समतल पर या भूपर
कुछ जन श्रुतियों का पहरा यहां लगा है,
जो मुझे भयानक कर देती है छू कर ।

तुम डरो नहीं, वैसे डर कहाँ नहीं है,
पर खास बात डर की कुछ यहाँ नहीं है
बस एक बात है, वह केवल ऐसी है,
कुछ लोग यहाँ थे, अब वे यहाँ नहीं हैं।

यहाँ बहुत दिन हुए एक थी रानी,
इतिहास बताता नहीं उसकी कहानी
वह किसी एक पागल पर जान दिये थी,
थी उसकी केवल एक यही नादानी!

यह घाट नदी का, अब जो टूट गया है,
यह घाट नदी का, अब जो फूट गया है
वह यहाँ बैठकर रोज रोज गाता था,
अब यहाँ बैठना उसका छूट गया है।

शाम हुए रानी खिड़की पर आती,
थी पागल के गीतों को वह दुहराती
तब पागल आता और बजाता बंसी,
रानी उसकी बंसी पर छुप कर गाती।

किसी एक दिन राजा ने यह देखा,
खिंच गयी हृदय पर उसके दुख की रेखा
यह भरा क्रोध में आया और रानी से,
उसने माँगा इन सब साँझों का लेखा-जोखा।

रानी बोली पागल को जरा बुला दो,
मैं पागल हूँ, राजा, तुम मुझे भुला दो
मैं बहुत दिनों से जाग रही हूँ राजा,
बंसी बजवा कर मुझको जरा सुला दो।

वो राजा था हाँ, कोई खेल नहीं था,
ऐसे जवाब से उसका कोई मेल नहीं था
रानी ऐसे बोली थी, जैसे इस
बड़े किले में कोई जेल नहीं था।

तुम जहाँ खड़े हो, यहीं कभी सूली थी,
रानी की कोमल देह यहीं झूली थी
हाँ, पागल की भी यहीं, रानी की भी यहीं,
राजा हँस कर बोला, रानी तू भूली थी।

किन्तु नहीं फिर राजा ने सुख जाना,
हर जगह गूँजता था पागल का गाना
बीच बीच में, राजा तुम भूले थे,
रानी का हँसकर सुन पड़ता था ताना।

तब और बरस बीते, राजा भी बीते,
रह गये किले के कमरे रीते रीते
तब मैं आया, कुछ मेरे साथी आये,
अब हम सब मिलकर करते हैं मनचीते।

पर कभी कभी जब वो पागल आ जाता है,
लाता है रानी को, या गा जाता है
तब मेरे उल्लू, साँप और गिरगिट पर
एक अनजान सकता-सा छा जाता है।

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