भवानी प्रसाद मिश्र की कविता की गीत फ़रोश| Kavita Geet Farosh | Bhavani Parshad Mishr
आज हम पढ़ रहे है लेखक भवानी प्रसाद मिश्र की प्रसिद्ध कविता “गीत फ़रोश” का मूल पाठ , व्याख्या तथा सारांश| कविता “गीत फ़रोश” ; भवानी प्रसाद मिश्र
कविता “गीत फ़रोश” की व्याख्या एवं सारांश
भवानी प्रसाद मिश्र ने गीत फ़रोश कविता के जरिए अपने दुख को प्रकट किया है कि किस तरह उन्होंने अपनी मजबूरी में आकर गीत बेचे है, वह कहते हैं कि मैंने अपनी मजबूरी के कारण और फिल्मी जगत की जरूरतों के हिसाब से अलग-अलग तरह के गीत लिखे और बेचे हैं । भवानी प्रसाद ने बताया है शुरुआत में उन्हें अपनी कविता को बेचने में शर्म का अनुभव होता था। कवि कहते हैं कि यहां तो लोग अपने ईमान को बेचने में शर्म नहीं करते मैं तो मजबूरी में सिर्फ अपने की थी बेच रहा हूं।
कवि का कहना है कि मेरे पास हर प्रकार के गीत आपके लिए उपलब्ध है । आप किस तरह के गीत चाहते हैं? हंसी के खुशी के, दुख के जैसा भी आप चाहते हैं, वैस ही गीत मैं आपको दे सकता हूं । अगर मेरे पास नहीं है तो मैं आपके लिए तुरंत लिख सकता हूं । यहां कवि अपने आप को एक व्यापारी के तौर पर दिखता है । जिस तरह व्यापारी ग्राहक को मनाने के लिए हर तरह की बातें करता है , उसी प्रकार कवि भी अपने गीत को बेचता है ।
आखरी पद्यांश में भवानी प्रसाद मिश्र कहते हैं, कि मुझे अपने गीतों को बेचना पसंद नहीं है लेकिन मैं क्या करूं मेरी मजबूरी है, इसलिए मैं अपने गीतों को बेच रहा हूं।
कविता “गीत फ़रोश” ; मूल पाठ
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ।
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत बेचता हूँ।
जी, माल देखिए दाम बताऊँगा
बेकाम नहीं है, काम बताऊंगा
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने
यह गीत, सख़्त सरदर्द भुलायेगा
यह गीत पिया को पास बुलायेगा।
जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझ को
पर पीछे-पीछे अक़्ल जगी मुझ को
जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान।
जी, आप न हों सुन कर ज़्यादा हैरान।
मैं सोच-समझकर आखिर
अपने गीत बेचता हूँ
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ।
यह गीत सुबह का है, गा कर देखें
यह गीत ग़ज़ब का है, ढा कर देखे
यह गीत ज़रा सूने में लिखा था
यह गीत वहाँ पूने में लिखा था।
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है
यह गीत बढ़ाये से बढ़ जाता है
यह गीत भूख और प्यास भगाता है
जी, यह मसान में भूख जगाता है
यह गीत भुवाली की है, हवा हुज़ूर
यह गीत तपेदिक की है, दवा हुज़ूर।
मैं सीधे-साधे और अटपटे
गीत बेचता हूँ
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ।
जी, और गीत भी हैं, दिखलाता हूँ
जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ
जी, छंद और बे-छंद पसंद करें
जी, अमर गीत और वे जो तुरत मरें।
ना, बुरा मानने की इसमें क्या बात,
मैं पास रखे हूँ क़लम और दावात
इनमें से भाये नहीं, नये लिख दूँ ?
इन दिनों की दुहरा है कवि-धंधा,
हैं दोनों चीज़े व्यस्त, कलम, कंधा।
कुछ घंटे लिखने के, कुछ फेरी के
जी, दाम नहीं लूँगा इस देरी के।
मैं नये पुराने सभी तरह के
गीत बेचता हूँ।
जी हाँ, हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ।
जी गीत जनम का लिखूँ, मरण का लिखूँ
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरण का लिखूँ
यह गीत रेशमी है, यह खादी का
यह गीत पित्त का है, यह बादी का।
कुछ और डिजायन भी हैं, ये इल्मी
यह लीजे चलती चीज़ नयी, फ़िल्मी।
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत,
यह दुकान से घर जाने का गीत,
जी नहीं दिल्लगी की इस में क्या बात
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात।
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,
जी रूठ-रुठ कर मन जाते है गीत।
जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूँ
गाहक की मर्ज़ी – अच्छा, जाता हूँ।
मैं बिलकुल अंतिम और दिखाता हूँ
या भीतर जा कर पूछ आइये, आप।
है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप
क्या करूँ मगर लाचार हार कर
गीत बेचता हँ।
जी हाँ हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ।