हिन्दी साहित्य में मार्क्सवाद | Hindi Saahity Mein Maarksavaad

हिन्दी साहित्य में मार्क्सवाद – हिन्दी साहित्य में ‘प्रगतिवादी’ कविता ‘मार्क्सवाद’ से प्रभावित है। सच पूछा जाय तो मार्क्सवाद का ही साहित्यिक रूप ‘प्रगतिवाद’ है।

हिन्दी साहित्य में मार्क्सवाद

मार्क्सवाद के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स (1818 – 1883 ई) एक जर्मन अर्थशास्त्री थे।

उनकी विचारधारा को तीन भागों में बाट सकते हैं-

(1) द्वन्द्वात्मक भौतिक विकासवाद

(2) मूल्य वृद्धि का सिद्धान्त

(3) मानव सभ्यता के विकास की व्याख्या

द्वन्द्वात्मक भौतिक विकासवाद

मार्क्स के अनुसार भौतिक विकास को परिचालित करने वाली प्रवृत्ति का नाम द्वन्द्वात्मक भौतिक विकासवाद है। द्वन्द्वात्मक विकास का तात्पर्य यह है कि विकास द्वन्द्व (सघर्ष) से होता है। दो विरोधी शक्तियों के संघर्ष से तीसरी शक्ति विकसित होती है। मार्क्सवाद के अनुसार सृष्टि का विकास इसी द्वन्द्वात्मक भौतिक विकासवाद से हुआ है। इसीलिए वह किसी अलौकिक सत्ता-आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक आदि के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता।


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मूल्य वृद्धि का सिद्धान्त

मूल्य वृद्धि के सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए मार्क्स ने बताया कि वस्तु की उत्पत्ति के चार अंग है- (i) मूल पदार्थ, (ii) स्थूल साधन, (iii) श्रमिक का श्रम, (iv) मूल्य वृद्धि । पूंजीपतियों ने पूजी के बल पर स्थूल साधनों अर्थात् मशीनों एवं उपकरणों पर एकाधिकार कर लिया है, परिणामतः मूल पदार्थ से ते उत्पादित वस्तु जिसमें श्रमिको का श्रम भी सम्मिलित है, पूंजीपति को लाभ पहुंचाती है। पूंजीपति इस पूंजी के बल पर श्रमिकों का शोषण करता है। स्पष्ट रूप से मार्क्स ने समाज को दो वर्गों में विभक्त किया-शोषक वर्ग (पूंजीपति, जमीदार, मिल मालिक, उद्योगपति) और शोषित वर्ग (मजदूर, श्रमिक, किसान, गरीब)। मार्क्सवाद शोषण का विरोध करता है। उसे शोषितों के प्रति सहानुभूति है और वह शोषण को समाप्त कर समाज में साम्यवादी व्यवस्था स्थापित करना चाहता है।

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मानव सभ्यता के विकास की व्याख्या

विश्व सभ्यता के विकास की व्याख्या भी मार्स ने इन्हीं दो वर्गो-शोषक, शोषित के आधार पर की है। इसे चार कालों में बांटा जा सकता है- (i) दास प्रथा, (ii) सामन्ती प्रथा, (iii) पूंजीवादी व्यवस्था और (iv) साम्यवादी व्यवस्था। मार्क्सवाद के अनुसार साम्यवाद ही वह व्यवस्था है जिसमें श्रमिक को उसके परिश्रम का पूरा लाभ मिल सकता है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए वह विद्रोह, हिंसा एवं क्रान्ति का समर्थन करता है। मार्क्सवाद में शोषितों को शोषको के विरुद्ध सघर्ष करने के लिए प्रेरित एवं उत्तेजित किया गया है।

मार्क्सवाद की प्रमुख मान्यताये  है-

(1) धर्म, ईश्वर एवं परलोक का विरोध,

(2) पूजीपति वर्ग के प्रति घृणा का प्रचार,

(3) शोषित वर्ग की दीनता एवं निर्धनता का चित्रण करते हुए उनके प्रति सहानुभूति,

(4) नारी का यथार्थ चित्रण ।

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हिन्दी साहित्य में प्रगतिवादी चेतना का सूत्रपात छायावाद के समाप्ति काल अर्थात् 1936 ई. से हुआ। सन् 1935 ई के आस-पास भारत मे साम्यवादी आन्दोलन प्रारम्भ हो गया था। पेरिस में 1935 ई. में ‘प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन’ नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था का उदय हो चुका था जिसकी एक शाखा सन् 1936 ई में सज्जाद जहीर और डॉ. मुल्कराज आनन्द के प्रयसो से भारत में स्थापित हुई और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना भारत में हुई जिसका पहला अधिवेशन लखनऊ में 1936 ई में प्रेमचन्द की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ।

प्रगतिवादी साहित्य ने शोषण का विरोध किया और, किसानों, मजदूरों के संघर्ष को बल प्रदान किया। शोषक, स्वार्थी, स्वकेन्द्रित, जर्जर व्यवस्था की विसंगतियों पर प्रगतिवाद में कसकर प्रहार किए है।

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