RBSC board class 10 Hindi chapter 1 सूरदास ; पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या।

RBSC board class 10 Hindi chapter 1 सूरदास (Surdas ) ; सूरदास (Surdas ) के पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या।

इस पाठ में ‘सूरसागर’ के भ्रमर गीत से चार पद लिए गए हैं। इन पदों में श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने के बाद गोपियों की विरह-व्यथा व्यक्त हुई है। ‘भ्रमर’ का नाम लेकर गोपियों ने श्रीकृष्ण के सखा और संदेशवाहक उद्धव पर पैने व्यंग्यबाण छोड़े हैं।

सूरदास (Surdas ) के पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या।

(1) बूझत स्याम कौन तू गोरी।

बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहाँ रहति काकी है बेटी, देखी नहीं कबहूँ ब्रज-खोरी ॥
काहे को हम ब्रज-तन आवतिं, खेलत रहतिं आपनी पोरी।
सुनत रहतिं स्रवननि नंद ढोटा, करत फिरत माखन दधि चोरी ॥
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहें, खेलन चलो संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि, बातनि भुरई राधिका भोरी॥

सन्दर्भ तथा प्रसंग-

प्रस्तुत पद कवि सूरदास द्वारा रचित है। यह उनकी अमर कृति ‘सूरसागर’ में संकलित है। इस पद में कृष्ण भोली राधा को साथ खेलने चलने को प्रेरित कर रहे हैं।

व्याख्या-

एक दिन अचानक ब्रज की गली में कृष्ण की राधा से भेंट हो जाती है। वह उससे उसका परिचय पूछते हैं। हे सुंदरी ! तुम कौन हो? तुम कहाँ रहती हो? किसकी बेटी हो? हमने इससे पहले तुम्हें ब्रज की गलियों में नहीं देखा ? राधा उत्तर देती है- भला हमें ब्रज में आने की क्या आवश्यकता है? मैं तो अपने द्वार पर ही खेलती रहती हूँ। हाँ कानों से यह अवश्य सुनती रहती हूँ कि कोई नन्द जी का लड़का मक्खन और दही की चोरी करता फिरता है। कृष्ण ने कहा-हम चोर ही सही, पर हम तुम्हारा क्या चुरा लेंगे। आओ साथ- साथ खेलने चलते हैं। ‘सूरदास’ कहते हैं कि उनके प्रभु श्रीकृष्ण बड़े रसिक हैं। उनको मीठी-मीठी बातें बनाना खूब आता है। उन्होंने भोली-भाली राधा को भी अपनी बातों से बहका लिया और दोनों साथ-साथ खेलने चल दिए।

विशेष-
पद की भाषा सरस और सरल ब्रजभाषा है।
शैली संवादपरक है।
राधा और कृष्ण के संवादों में उनकी आयु के अनुरूप सहज वार्तालाप के दर्शन होते हैं।
कवि ने कृष्ण को ‘रसिक शिरोमणि’ बताकर मधुर व्यंग्य किया है।

(2) मधुकर स्याम हमारे चोर।

मधुकर स्याम हमारे चोर।
मन हरि लियौ तनक चितवन में, चपल नैन की कोर ॥
पकरे हुते हृदय उर अंतर, प्रेम प्रीति जोर।
गए छैड़ाई तोरि सब बंधन, दै गए हँसनि अँकोर ॥

सन्दर्भ तथा प्रसंग-

प्रस्तुत पद महाकवि सूरदास की रचना है। यह उनके द्वारा रचित सूरसागर महाकाव्य के भ्रमरगीत प्रसंग से संकलित है। इस पद में गोपियाँ कृष्ण के कपटपूर्ण व्यवहार पर व्यंग्य कर रही हैं।

व्याख्या-

गोपियाँ उद्धव से वार्तालाप के समय कहीं से आकर मँडराने वाले भौरे को कृष्ण का प्रतीक बनाकर, उन पर कपट करने का आरोप लगाते हुए कह रही हैं- अरे भौरे ! तुम्हारे जैसे ही श्याम रंग वाले वह कृष्ण हमारे चोर हैं। उन्होंने अपने चंचल नेत्रों के कोनों से अपनी तनिक दृष्टि डालकर हमारे मन को चुरा लिया। हमने अपनी प्रीति और अनुराग के बल पर उन्हें अपने हृदय में बंदी बना लिया था। उनके प्रेम पर विश्वास करके उनको अपने हृदय में बसा लिया था। किन्तु वह हमारे प्रेम के सारे बन्धनों को तोड़कर निकल गये। वह अपनी मनमोहनी हँसी रूपी रिश्वत देकर, हमें असावधान बनाकर, हमारे हृदय के प्रेम- बन्धनों को तोड़कर चले गए।

इस चोरी और कपट का पता चलते ही हम लोग चौंक कर जाग पड़ीं। हमारी सारी रात जागते ही बीती। इस चोरी और कपट का पता चलते ही हम लोग चौंक कर जाग पड़ीं। हमारी सारी रात जागते ही बीती। फिर हमें उनका एक दूत (संदेश लाने वाला) भौरा (उद्धव) मिला। उसने अपने योग के संदेशों से हम लोगों को बहुत दुखी किया। उस चतुर नवल किशोर (कृष्ण) ने हमारा सब कुछ लूटकर हमें वियोग की ज्वाला में जलते रहने को छोड़ दिया।

विशेष-
भाषा में लक्षणा शक्ति और व्यंग्य का सौन्दर्य है।
शैली प्रतीकात्मक और व्यंग्यात्मक है।
कोमल भावनाओं और वियोग-वेदना की अभिव्यक्ति हुई है।
अनुप्रास तथा रूपक अलंकार का प्रयोग हुआ है।

3.संदेसनि मधुबन कूप भरे।

संदेसनि मधुबन कूप भरे।
अपने तो पठवत नहीं मोहन, हमरे फिरि न फिरे ॥
जिते पथिक पठए मधुबन कौं, बहुरि न सोध करे।
कै वै स्याम सिखाइ प्रमोधे, कै कहुँ बीच मरे ॥
कागद गरे मेघ, मसि खूटी, सर दवे लागि जरे ॥
सेवक सूर लिखन कौ आंधौ, पलक कपाट अरे ॥

सन्दर्भ तथा प्रसंग-

प्रस्तुतं पद कवि सूरदास के ‘सूर सागर’ काव्यग्रन्थ में संकलित है। यह ‘भ्रमरगीत’ नामक प्रसंग से लिया गया है। इस पद में गोपियाँ मथुरा में स्थित श्रीकृष्ण को अपने द्वारा भिजवाए गए संदेशों का उत्तर न मिलने पर, चुटीले व्यंग्य बाण चला रही हैं।

व्याख्या-

गोपियाँ श्रीकृष्ण के उपेक्षापूर्ण व्यवहार पर चोट करते हुए कह रही हैं कि उन्होंने अब तक इतने संदेश श्रीकृष्ण के पास भिजवाए हैं कि हैं कि उनसे मथुरा के सारे कुएँ। भर गए होंगे। मथुरा के जन-जन को हमारे संदेशों का पता चल गया होगा। श्रीकृष्ण जान बूझकर हमारी उपेक्षा कर रहे हैं। वे अपने संदेश तो भेजते ही नहीं। हमारे द्वारा संदेश ले गए लोग भी इधर लौटकर नहीं आए। ऐसा लगता है कि कृष्ण ने उनको सिखाकर (बहकाकर) अपने साथ मिला लिया है। लौटकर नहीं आने दिया है या फिर वे बेचारे कहीं बीच में ही मर गए। यदि ऐसा न होता तो वे अवश्य लौटकर आए होते। ऐसा भी हो सकता है कि मथुरा के सारे कागज वर्षा में भीगकर गल गए हों या फिर वहाँ की सारी स्याही ही समाप्त हो गई हो ? हो सकता है वहाँ कलम बनाने के लिए काम आने वाले सरकंडे ही वन की आग में जलकर भस्म हो गए हों। यह भी हो सकता है कि कृष्ण का पत्रों का उत्तर लिखने वाला सेवक ही अंधा हो गया हो। उसके नेत्रों के पलकरूपी किवाड़ ही न खुल पा रहे हों। इनमें से कोई न कोई कोई कारण अवश्य रहा होगा, तभी हमारे संदेशों का उत्तर हमें अब तक नहीं मिला।

विशेष-
पद की एक-एक पंक्ति गोपियों के आक्रोश और व्यंग्य प्रहार से भरी हुई है।
गोपियों को विश्वास हो गया है कि वे प्रेम के नाम पर कृष्ण द्वारा छली गई हैं।
भाषा और शैली व्यंग्य के लिए सर्वथा उपयुक्त है।
“कै वै स्याम……बीच मरे” पंक्ति में गोपियों के क्षोभ से भरे हुए हृदयों का उद्गार है।
‘स्याम सिखाइ’ तथा ‘मेघ, मसि’ में अनुप्रास’ पलक कपाट’ में रूपक और पूरे पद में ‘संदेह’ अलंकार का चमत्कार है।

(4) ऊधौ मन माने की बात।

ऊधौ मन माने की बात।
दाख छुहारी छांड़ि अमृत फल, बिषकीरा बिष खात ॥
ज्यों चकोर कों देई कपूर कोउ, तजि अंगार अघात।
मधुप करत घर फोरि काठ मैं, बंधत कमल के पात ॥
ज्य पतंग हित जानि आपनो, दीपक सौं लपटात ।
सूरदास जाको मन जासौ, सोई ताहि सुहात ॥

सन्दर्भ तथा प्रसंग-

प्रस्तुत पद कवि सूरदास जी द्वारा रचित है। यह उनके काव्यग्रन्थ ‘सूरसागर’ से संकलित है। यह सूरसागर के ‘भ्रमरगीत’ प्रसंग से लिया गया है।

व्याख्या-

उद्धव द्वारा कृष्ण को भुलाकर योग साधना करने का उपदेश दिए जाने पर, गोपियाँ कह रही हैं-हे उद्धव! कृष्ण जैसे भी हैं, हमें प्रिय हैं। यह तो मन के मानने की बात है। जिससे मन लग जाय वही प्यारा लगता है। उसे व्यक्ति कष्ट पाकर भी प्रेम करता है, अपनाता है। गोपियाँ कहती हैं कि संसार में अंगूर और छोहारी जैसे अमृत के समान मधुर फल हैं किन्तु विष का कीट इन सबको ठुकराकर विष को ही खाता है। उसका मन विष से लगा हुआ है। चाहे चकोर को कोई सुगंधित और शीतल कपूर चुगाए पर वह उसे त्यागकर झुलसा देने वाले अंगारे को ही खाता है। भौंरा अपना घर बनाने के लिए कठोर काठ में भी छेद कर देता है किन्तु वही कमल की कोमल पंखुड़ियों के बीच बन्द हो जाता है। उसे काटकर बाहर नहीं
निकलता। इसी प्रकार दीपक से प्रेम करने वाला पतंगा दीपक की लौ से लिपटने में ही अपनी भलाई मानकर उसमें भस्म हो जाता है। बात वही है कि जिससे जिसका मन लगा होता है, उसे वही सुहाता है। हमारा मन श्रीकृष्ण से लगा है। हमें वही सुहाते हैं। आपके योग को स्वीकार कर पाना हमारे वश की बात नहीं।

विशेष-
सरस ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।
शैली भावात्मक है।
उद्धव के उपदेशों और तर्को का गोपियों ने अपनी प्रेम-विवशता से नम्रतापूर्ण खंडन किया है।
अनुप्रास, उदाहरणदृ ष्टांत आदि अलंकार हैं।
वियोग श्रृंगार रस की रचना है।

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