कहानी सद्गति मूल पाठ ,व्याख्या तथा सार| Kahani Sadgati
आज हम पढ़ रहे है लेखक प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी सद्गति का मूल पाठ , व्याख्या तथा सार| कहानी सद्गति ; लेखक प्रेमचंद
पंडितजी ने एक रस्सी निकाली। उसका फन्दा बनाकर मुरदे के पैर में डाला और फन्दे को खींचकर कस दिया। अभी कुछ-कुछ धुंधलका था। पंडितजी ने रस्सी पकड़कर लाश को घसीटना शुरू किया और गाँव के बाहर घसीट ले गये। वहाँ से आकर तुरन्त स्नान किया, दुर्गापाठ पढ़ा और घर में गंगाजल छिड़का।उधर दुखी की लाश को खेत में गीदड़ और गिद्ध, कुत्ते और कौए नोच रहे थे। यही जीवन पर्यन्त की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था।
कहानी सद्गति मूल पाठ , व्याख्या तथा सार
व्याख्या;
सद्गति कहानी प्रेमचंद की एक यथार्थवादी कहानी है । जिसमें प्रेमचंद ने समाज के सत्य को उजागर किया है, इस कहानी में प्रेमचंद जी ने दिखाया है कि किस तरह से समाज के अंदर नीची जाति को ऊंची जाति के प्रताड़ित करते हैं और उनसे बेगार का काम लेते हैं। यहां तक कि उनकी जान की फिक्र किए बिना उन पर जुल्म करते हैं।
पाठ सार;
इस कहानी में दुखी नाम का एक चमार रहता है जो कि अपनी पत्नी से कहकर पंडित के घर अपनी बेटी की सगाई का मुहूर्त निकलवाने के लिए जाता है । लेकिन जब दुखी पंडित के घर जाता है, तो पंडित उसे दुखी से पहले अपने सारे कार्य करवा लेता है और उसे एक मोटा लकड़ी का गठ फड़ने के लिए दे देता है । जिसे दुखी फाड़ नहीं पता है । तब पंडित उसे पर चिलाती है और कहता है कि इसे फाड़ उसके बाद ही मैं तेरे साथ चलूंगा । और दुखी को वह लकड़ी का गांठ पड़ना ही पड़ता है लेकिन उसे फाड़ने में दुखी के जान चली जाती है। जान दुखी की जान जाने के बाद जब कोई उसकी लाश को उठाकर नहीं ले जाता तो रात के अंधेरे में पंडित उसे एक रस्सी में बांधकर गांव के बाहर फेंक आता है और उसकी लाश को कौवे , गिद्ध और कुत्ते नोच, नोच कर खाते हैं।
सद्गति कहानी का मूल पाठ;
दुखी चमार द्वार पर झाडू लगा रहा था और उसकी पत्नी झुरिया, घर को गोबर से लीप रही थी। दोनों अपने-अपने काम से फुर्सत पा चुके थे, तो चमारिन ने कहा- तो जाके पंडित बाबा से कह आओ न। ऐसा न हो कहीं चले जाएँ।
दुखी- हाँ जाता हूँ, लेकिन यह तो सोच, बैठेंगे किस चीज पर? झुरिया- कहीं से खटिया न मिल जाएगी? ठकुराने से मांग लाना।
दुखी- तू तो कभी-कभी ऐसी बात कह देती है कि देह जल जाती है। ठकुराने वाले मुझे खटिया देंगे! आग तक तो घर से निकलती नहीं, खटिया देंगे! कैथाने में जाकर एक लोटा पानी मांगू तो न मिले। भला खटिया कौन देगा! हमारे उपले, सेंठे, भूसा, लकड़ी थोड़े ही हैं कि जो चाहे उठा ले जाएँ। ले अपनी खटोली धोकर रख दे। गरमी के तो दिन हैं। उनके आते-आते सूख जाएगी।
झुरिया – वह हमारी खटोली पर बैठेंगे नहीं। देखते नहीं कितने नेम-धरम से रहते हैं।
दुखी ने जरा चिंतित होकर कहा- हाँ, यह बात तो है। महुए के पत्ते तोड़कर एक पत्तल बना लूँ तो ठीक हो जाए। पत्तल में बड़े-बड़े आदमी खाते हैं। वह पवित्र है। ला तो डंडा, पत्ते तोड़ लूँ।
झुरिया- पत्तल मैं बना लूंगी, तुम जाओ। लेकिन हाँ, उन्हें सीधा भी तो देना होगा। अपनी थाली में रख दूँ?
दुखी- कहीं ऐसा गजब न करना, नहीं तो सीधा भी जाए और थाली भी फूटे! बाबा थाली उठाकर पटक देंगे। उनको बड़ी जल्दी क्रोध चढ़ आता है। क्रोध में पंडिताइन तक को छोड़ते नहीं, लड़के को ऐसा पीटा कि आज तक टूटा हाथ लिये फिरता है। पत्तल में सीधा भी देना, हाँ। मुदा तू छूना मत। झूरी गोंड़ की लड़की कोलेकर साह की दुकान से सब चीजें ले आना। सीधा भरपूर हो। सेर भर आटा, आधा सेर चावल, पाव भर दाल, आध पाव घी, नोन, हल्दी और पत्तल में एक किनारे चार आने पैसे रख देना। गोंड़ की लड़की व मिले तो धुर्जिन के हाथ-पैर जोड़कर ले जाना। तू कुछ मत छूना, नहीं गजब हो जाएगा।
इन बातों की ताकीद करके दुखी ने लकड़ी उठाई और घास का एक बड़ा-सा गट्ठा लेकर पंडितजी से अर्ज करने चला। खाली हाथ बाबा जी की सेवा में कैसे जाता। नजराने के लिए उसके पास घास के सिवाय और क्या था। उसे खाली देखकर तो बाबा दूर से ही दुत्कारते।
पं. घासीराम ईश्वर के परम भक्त थे। नींद खुलते ही ईश्वरोपासन में लग जाते। मुँह-हाथ धोते आठ बजते, तब असली पूजा शुरू होती। जिसका पहला भाग भंग की तैयारी थी। उसके बाद आध घण्टे तक भंग रगड़ते, फिर आईने के सामने एक तिनके से माथे पर तिलक लगाते। चन्दन की दो रेखाओं के बीच में लाल रोरी की बिन्दी होती थी। फिर छाती पर, बाहों पर चन्दन की गोल-गोल मुद्रिकाएँ बनाते। फिर ठाकुरजी की मूर्ति निकालकर उसे नहलाते, चन्दन लगाते, फूल बढ़ाते, आरती करते, घंटी बजाते। दस बजते-बजते वह पूजन से उठते और भंग छानकर बाहर आते। तब तक दो-चार जजमान द्वार पर आ जाते ! ईश्वरोपासन का तत्काल फल मिल जाता। वहीं उनकी खेती थी।
आज वह पूजन-गृह से निकले, तो देखा दुखी चमार घास का एक गट्ठा लिये बैठा है। दुखी उन्हें देखते ही उठ खड़ा हुआ और उन्हें साष्टांग दंडवत् करके हाथ बांधकर खड़ा हो गया। यह तेजस्वी मूर्ति देखकर उसका हृदय श्रद्धा से परिपूर्ण हो गया! कितनी दिव्य मूर्ति थी। छोटा-सा गोल-मटोल आदमी, चिकना सिर, फूले गाल, ब्रह्मतेज में प्रदीप्त आँखें। रोरी और चंदन देवताओं की प्रतिभा प्रदान कर रही थी। दुखी को देखकर श्रीमुख से बोले- आज कैसे चला रे दुखिया?
दुखी ने सिर झुकाकर कहा- बिटिया की सगाई कर रहे है महाराज। कुछ साइत सगुन विचारना है। कब मर्जी होगी? घासी- आज मुझे छुट्टी नहीं। हाँ साँझ तक आ जाऊँगा। दुखी नहीं महराज, जल्दी मर्जी हो जाए। सब सामान ठीक कर आया हूँ। यह घास कहाँ रख दूँ?
घास- इस गाय के सामने डाल दे और जरा झाडू लेकर द्वार तो साफ कर दे। यह बैठक भी कई दिन से लीपी नहीं गई। उसे भी गोबर से लीप दे। तब तक मैं भोजन कर लूँ। फिर जरा आराम करके चलूंगा। हाँ, यह लकड़ी भी चीर देना। खलिहान में चार खाँची भूसा पड़ा है। उसे भी उठा लाना और घुसौली में रख देना।
दुखी, फौरन हुक्म की तामील करने लगा। द्वार पर झाडू लगाई, बैठक को गोबर से लीपा। तब बारह बज गये। पंडितजी भोजन करने चले गये। दुखी ने सुबह से कुछ नहीं खाया था। उसे भी जोर की भूख लगी; पर वहाँ खाने को क्या धरा था। घर यहाँ से मील भर था। वहाँ खाने चला जाए, तो पंडितजी बिगड़ जाएँ। बेचारे ने भूख दबाई और लकड़ी फाड़ने लगा। लकड़ी की मोटी-सी गाँठ थी; जिस पर पहले कितने ही भक्तों ने अपना जोर आजमा लिया था। वह उसी दम-खम के साथ लोहे से लोहा लेने के लिए तैयार थी। दुखी घास छीलकर बाजार ले जाता था। लकड़ी चीरने का उसे अभ्यास न था। घास उसके खुरपे के सामने सिर झुका देती थी। यहाँ कस-कसकर कुल्हाड़ी का भरपूर हाथ लगाता; पर उस गाँठ पर निशान तक न पड़ता था। कुल्हाड़ी उचट जाती। पसीने में तर था, हाँफता था, थककर बैठ जाता था, फिर उठता था। हाथ उठाये न उठते थे, पाँव काँप रहे थे, कमर न सीधी होती थी, आँखों तले अंधेरा हो रहा था, सिर में चक्कर आ रहे थे, तितलियाँ उड़ रही थीं, फिर भी अपना काम किये जाता था। अगर एक चिलम तम्बाकू पीने को मिल जाती, तो शायद कुछ ताकत आती। उसने सोचा, यहाँ चिलम और तम्बाकू कहाँ मिलेगी। बाह्मनों का गांव है। बाह्मन लोग हम नीच जातों की तरह तम्बाकू थोड़े ही पीते हैं। सहसा उसे याद आया कि गाँव में एक गोंड़ भी रहता है। उसके यहाँ जरूर चिलम-तमाखू होगी। तुरंत उसके घर दौड़ा। खैर मेहनत सफल हुई। उसने तमाखू भी दी और चिलम भी दी; पर आग यहाँ न थी। दुखी ने कहा- आग की चिन्ता न करो भाई। मैं जाता हूं, पंडितजी के घर से आग मांग लूंगा। वहाँ तो अभी रसोई बन रही थी। यह कहता हुआ वह दोनों चीजें लेकर चला आया और पंडितजी के घर में बरीठे के द्वार पर खड़ा होकर बोला- मालिक, रचिके आग मिल आए, तो चिलम पी लें।
पंडितजी भोजन कर रहे थे। पंडिताइन ने पूछा- यह कौन आदमी आग मांग रहा है?
पंडित- अरे वही ससुरा दुखिया चमार है। कहा है, थोड़ी-सी लकड़ी चीर दे। आग तो है, दे दो।
पंडिताइन ने भँवें चढ़ाकर कहा- तुम्हें तो जैसे पोथी-पत्रे के फेर में धरम-करम किसी बात की सुधि ही नहीं रही। चमार हो, धोबी हो, पासी हो, मुँह उठाये घर में चला आये। हिन्दू का घर न हुआ, कोई सराय हुई। कह दो दाढ़ीजार से चला जाए, नहीं तो इस लुआठे से मुँह झुलस दूंगी। आग मांगने चले हैं।
पंडितजी ने उन्हें समझाकर कहा- भीतर आ गया, तो क्या हुआ।
तुम्हारी कोई चीज तो नहीं छुई। धरती पवित्र है। जरा-सी आग दे क्यों नहीं देती, काम तो हमारा ही कर रहा है। कोई लोनिया यही लकड़ी फाड़ता, तो कम-से-कम चार आने लेता।
पंडिताइन ने गरजकर कहा- वह घर में आया क्यों।
पंडित ने हारकर कहा- ससुरे का अभाग था और क्या।
पंडिताइन- अच्छा, इस बखत तो आग दिये देती हूँ, लेकिन फिर जो इस तरह घर में आयेगा, तो उसका मुँह ही जला दूंगी।
दुखी के कानों में इन बातों की भनक पड़ रही थी। पछता रहा था, नाहक आया। सच तो कहती हैं। पंडित के घर में चमार कैसे चला आये। बड़े पवित्र होते हैं यह लोग, तभी तो संसार पूजता है, तभी तो इतना मान है। भर-चमार थोड़े ही हैं। इसी गाँव में बूढ़ा हो गया; मगर मुझे इतनी अकल भी न आई।
इसलिए जब पंडिताइन आग लेकर निकलीं, तो वह मानो स्वर्ग का वरदान पा गया। दोनों हाथ जोड़कर जमीन पर माथा टेकता हुआ बोला- पंडाइन माता, मुझसे बड़ी भूल हुई कि घर में चला आया। चमार की अकल ही तो ठहरी। इतने मूरख न होते, तो लात क्यों खाते।
पंडिताइन चिमटे से पकड़कर आग लाई थीं। पाँच हाथ को दूरी से घूंघट की आड़ से दुखी की तरफ आग फेंकी। आग की बड़ी-सी चिंगारी दुखी के सिर पर पड़ गयी। जल्दी से पीछे हटकर सिर के झोटे देने लगा। उसने मन में कहा- यह एक पवित्र बाह्मन के घर को अपवित्र करने का फल है। भगवान ने कितनी जल्दी फल दे दिया। इसी से तो संसार पंडितों से डरता है। और सबके रुपये मारे जाते हैं, बाह्यन के रुपये भला कोई मार तो ले! घर भर का सत्यानाश हो जाए, पाँव गल-गलकर गिरने लगे।
बाहर आकर उसने चिलम पी और फिर कुल्हाड़ी लेकर जुट गया। खट-खट की आवाजें आने लगीं।
उस पर आग पड़ गई, तो पंडिताइन को उस पर कुछ दया आ गई।
पंडितजी भोजन करके उठे, तो बोलीं- इस चमरवा को भी कुछ खाने को दे दो, बेचारा कब से काम कर रहा है। भूखा होगा।
पंडितजी ने इस प्रस्ताव को व्यावहारिक क्षेत्र से दूर समझकर पूछा- रोटियाँ हैं?
पंडिताइन- दो-चार बच जाएंगी।
पंडित- दो-चार रोटियों में क्या होगा? चमार है, कम से कम सेर भर चढ़ा जाएगा।
पंडिताइन कानों पर हाथ रखकर बोलीं- अरे बाप रे! सेर भर! तो फिर रहने दो।
पंडितजी ने अब शेर बनकर कहा- कुछ भूसी-चोकर हो तो आटे में मिलाकर दो ठो लिट्टा ठोंक दो। साले का पेट भर जाएगा।
पतली रोटियों से इन नीचों का पेट नहीं भरता। इन्हें तो जुआर का लिट्टा चाहिए।
पंडिताइन ने कहा- अब जाने भी दो, धूप में कौन मरे।
दुखी ने चिलम पीकर फिर कुल्हाड़ी संभाली। दम लेने से जरा हाथों में ताकत आ गई थी। कोई आध घण्टे तक फिर कुल्हाड़ी चलाता रहा। फिर बेदम होकर वहीं सिर पकड़ के बैठ गया।
इतने में वही गोंड़ आ गया। बोला- क्यों जान देते हो बूढ़े दादा, तुम्हारे फाड़े यह गाँठ न फटेगी। नाहक हलकान होते हो। दुखी ने माथे का पसीना पोंछकर कहा- अभी गाड़ी भर भूसा ढोना है भाई!
गोंड़- कुछ खाने को मिला कि काम ही कराना जानते हैं। जाके मांगते क्यों नहीं?
दुखी कैसी बात करते हो चिखुरी, बाह्मन की रोटी हमको पचेगी!
गोंड़- पचने को पच जाएगी, पहले मिले तो। मूँछों पर ताव देकर भोजन किया और आराम से सोये, तुम्हें लकड़ी फाड़ने का हुक्म लगा दिया। जमींदार भी कुछ खाने को देता है। हाकिम भी बेगार लेता है, तो थोड़ी बहुत मजूरी देता है। यह उनसे भी बढ़ गये, उस पर धर्मात्मा बनते हैं।
दुखी- धीरे-धीरे बोलो भाई, कहीं सुन लें तो आफत आ जाए। यह कहकर दुखी फिर संभल पड़ा और कुल्हाड़ी की चोट मारने लगा। चिखुरी को उस पर दया आई। आकर कुल्हाड़ी उसके हाथ से छीन ली और कोई आध घंटे खूब कस-कसकर कुल्हाड़ी चलाई; पर गाँठ में एक दरार भी न पड़ी। तब उसने कुल्हाड़ी फेंक दी और यह कहकर चला गया- तुम्हारे फाड़े यह न फटेगी, जान भले निकल जाए।
दुखी सोचने लगा, बाबा ने यह गाँठ कहाँ रख छोड़ी थी कि फाड़े नहीं फटती। कहीं दरार तक तो नहीं पड़ती। मैं कब तक इसे चीरता रहूँगा। अभी घर पर सौ काम पड़े हैं। कार-परोजन का घर है। एक-न-एक चीज घटी ही रहती है; पर इन्हें इसकी क्या चिंता। चले जब तक भूसा ही उठा लाऊँ। कह दूंगा, बाबा, आज तो लकड़ी नहीं फटी, कल आकर फाड़ दूंगा।
उसने झौवा उठाया और भूसा ढोने लगा। खलिहान यहाँ से दो फरलांग से कम न था। अगर झौवा खूब भर-भरकर लाता तो काम जल्द खत्म हो जाता; फिर झौवे को उठाता कौन। अकेले भरा हुआ झौवा उससे न उठ सकता था। इसलिए थोड़ा-थोड़ा लाता था। चार बजे कहीं भूसा खत्म हुआ। पंडितजी की नींद भी खुली। मुँह-हाथ धोया, पान खाया और बाहर निकले। देखा, तो दुखी झौवा सिर पर रखे सो रहा है। जोर से बोले- अरे, दुखिया तू सो रहा है? लकड़ी तो अभी ज्यों की त्यों पड़ी हुई है। इतनी देर तू करता क्या रहा? मुट्ठी भर भूसा ढोने में साँझ कर दी। उस पर सो रहा है। उठा ले कुल्हाड़ी और लकड़ी फाड़ डाल। तुझसे जरा-सी लकड़ी नहीं फटती। फिर साइत भी वैसी ही निकलेगी, मुझे दोष मत देना! इसी से कहा है कि नीच के घर में खाने को हुआ और उसकी आँख बदली।
दुखी ने फिर कुल्हाड़ी उठाई। जो बातें पहले से सोच रखी थीं, वह सब भूल गईं। पेट पीठ में धँसा जाता था, आज सबेरे जलपान तक न किया था। अवकाश ही न मिला। उठना ही पहाड़ मालूम होता था। जी डूबा जाता था, पर दिल को समझाकर उठा। पंडित हैं, कहीं साइत ठीक न विचारें, तो फिर सत्यानाश ही हो जाए। जभी तो संसार में इतना मान है। साइत ही का तो सब खेल है। जिसे चाहे बिगाड़ दें। पंडितजी गाँठ के पास आकर खड़े हो गये और बढ़ावा देने लगे- हाँ, मार कसके, और मार-कसके मार-अबे जोर से मार-तेरे हाथ में तो जैसे दम ही नहीं है- लगा कसके, खड़ा सोचने क्या लगता है- हाँ-बस फटा ही चाहती है! दे उसी दरार में!
दुखी अपने होश में न था। न-जाने कौन-सी गुप्तशक्ति उसके हाथों को चला रही थी। वह थकान, भूख, कमजोरी सब मानो भाग गाई। उसे अपने बाहुबल पर स्वयं आश्चर्य हो रहा था। एक-एक चोट वज्र की तरह पड़ती थी। आध घण्टे तक वह इसी उन्माद की दशा में हाथ चलाता रहा, यहाँ तक कि लकड़ी बीच से फट गई- और दुखी के हाथ से कुल्हाड़ी छूटकर गिर पड़ी। इसके साथ वह भी चक्कर खाकर गिर पड़ा। भूखा, प्यासा, थका हुआ शरीर जवाब दे गया।
पंडितजी ने पुकारा- उठके दो-चार हाथ और लगा दे। पतली-पतली चैलियाँ हो जाएँ।
दुखी न उठा। पंडितजी ने अब उसे दिक करना उचित न समझा। भीतर जाकर बूटी छानी, शौच गये, स्नान किया और पंडिताई वाना पहनकर बाहर निकले! दुखी अभी तक वहीं पड़ा हुआ था। जोर से पुकारा- अरे क्या पड़े ही रहोगे दुखी, चलो तुम्हारे ही घर चल रहा हूँ। सब सामान ठीक-ठीक है न?
दुखी फिर भी न उठा। अब पंडितजी को कुछ शंका हुई। पास जाकर देखा, तो दुखी अकड़ा पड़ा हुआ था। बदहवास होकर भागे और पंडिताइन से बोले दुखिया तो जैसे मर गया।
पंडिताइन हकबकाकर बोलीं- वह तो अभी लकड़ी चीर रहा था न? पंडित- हाँ लकड़ी चीरते चीरते मर गया। अब क्या होगा? पंडिताइन ने शान्त होकर कहा होगा क्या, चमरौने में कहला भेजो
मुर्दा उठा ले जाएँ।
एक क्षण में गाँव भर में खबर हो गई। पूरे में ब्राह्मनों की ही बस्ती थी। केवल एक घर गोंड़ का था। लोगों ने इधर का रास्ता छोड़ दिया। कुएँ का रास्ता उधर से ही था, पानी कैसे भरा जाए। चमार की लाश के पास से होकर पानी भरने कौन जाए। एक बुढ़िया ने पण्डितजी से कहा- अब मुर्दा फेंकवाते क्यों नहीं? कोई गाँव में पानी पीयेगा या नहीं।
इधर गोंड़ ने चमरौने में जाकर सबसे कह दिया खबरदार, मुर्दा उठाने मत जाना। अभी पुलिस की तहकीकात होगी। दिल्लगी है कि एक गरीब की जान ले ली। पंडितजी होंगे, तो अपने घर के होंगे। लाश उठाओगे तो तुम भी पकड़ जाओगे।
इसके बाद ही पंडितजी पहुँचे; पर चमरौने का कोई आदमी लाश उठा लाने को तैयार न हुआ, हाँ दुखी की स्त्री और कन्या दोनों हाय-हाय करती वहाँ चलीं और पंडितजी के द्वार पर आकर सिर पीट-पीटकर रोने लगीं। उनके साथ दस-पाँच और चमारिनें थीं। कोई रोती थी, कोई समझाती थी, पर चमार एक भी न था। पंडितजी ने चमारों को बहुत धमकाया, समझाया, मिन्नत की; पर चमारों के दिल पर पुलिस का रोब छाया हुआ था, एक भी न मिनका। आखिर निराश होकर लौट आये।
आधी रात तक रोना-पीटना जारी रहा। देवताओं का सोना मुश्किल हो गया। पर लाश उठाने कोई चमार न आया और ब्राह्मन चमार की लाश कैसे उठाते ! भला ऐसा किसी शास्त्र-पुराण में लिखा है? कहीं कोई दिखा दे। पंडिताइन ने झुंझलाकर कहा- इन डाइनों ने तो खोपड़ी चाट डाली।
सभों का गला भी नहीं पकता। पंडित ने कहा- रोने दो चुड़ैलों को, कब तक रोयेंगी। जीता था,
तो कोई बात न पूछता था। मर गया, तो कोलाहल मचाने के लिए सब की सब आ पहुँची।
पंडिताइन- चमार का रोना मनहूस है।
पंडित- हाँ, बहुत मनहूस ।
पंडिताइन- अभी से दुर्गन्ध उठने लगी।
पंडित- चमार था ससुरा कि नहीं। साध-असाध किसी का विचार है, इन सबों को।
पंडिताइन- इन सबों को घिन भी नहीं लगती।
रात तो किसी तरह कटी; मगर सबेरे भी कोई चमार न आया। चमारिनें भी रो-पीटकर चली गई। दुर्गन्ध कुछ-कुछ फैलने लगी।
पंडितजी ने एक रस्सी निकाली। उसका फन्दा बनाकर मुरदे के पैर में डाला और फन्दे को खींचकर कस दिया। अभी कुछ-कुछ धुंधलका था। पंडितजी ने रस्सी पकड़कर लाश को घसीटना शुरू किया और गाँव के बाहर घसीट ले गये। वहाँ से आकर तुरन्त स्नान किया, दुर्गापाठ पढ़ा और घर में गंगाजल छिड़का।
उधर दुखी की लाश को खेत में गीदड़ और गिद्ध, कुत्ते और कौए नोच रहे थे। यही जीवन पर्यन्त की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था।